________________ उग्र से उग्र तपश्चरण करती रहे और प्रत्येक महीने के अन्त में उपवास की पारणा करे तथापि स्त्री को उसी पर्याय से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसका कारण बताते हैं - स्त्रियों में मायाचारी की अधिकता, प्रमाद की प्रचरता होती है। इसके अलावा प्रत्येक महीने में उनके योनि रजः स्राव होता रहता है, इसलिये उनका चित्त स्थिर नहीं रह पाता और स्थिरता से ध्यान होकर मोक्ष की प्राप्ति होना संभव है। स्त्रियों के शरीर के और भी दोष बताते हुए आचार्य कहते हैं कि स्त्रियों की योनि, नाभि, काँख में सम्मूर्च्छन मनुष्य उत्पन्न होकर प्रतिसमय मरते रहते हैं। ये जीव मनुष्य के आकार के संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, सूक्ष्म और अपर्याप्तक होते हैं। यही कारण है कि स्त्रियों के सर्वथा हिंसा का त्याग नहीं हो पाता है। अतः स्त्रियाँ मात्र संकल्पी आदि हिंसा की त्यागी होती हैं परन्तु मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदना से समस्त जीवों की पूर्ण हिंसा का त्याग उनसे नहीं हो सकता, इसलिये वे पूर्ण संयम को धारण नहीं कर सकती है।' मोक्षप्राप्ति संयम से ही संभव है और स्त्रियों के दोनों प्रकार का संयम का पालन नहीं हो पाता है, इसलिये स्त्रियाँ अपने योग्य आर्यिका के व्रत धारण कर स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग में देव हो सकती हैं और वहाँ से आकर मनुष्य पर्याय में पुरुष होकर मनिव्रत पालन करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकती हैं। सीता का जीव अथवा अन्य स्त्रियाँ इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त करेंगी। यहाँ पर कोई शंका करता है कि क्या स्त्रियाँ जीव नहीं हैं, उनके उपयोग चेतना नहीं है? स्त्रियों में ऐसा क्या नहीं है जिस कारण वे मोक्ष नहीं जा सकती। इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - यदि जीव होने से ही मोक्ष होना मानते हो तो सभी जीव जो महापापी हैं वे भी मोक्ष चले जायेंगे और यदि स्त्रियों के चेतना होने से मोक्ष मानते हो तो वेश्या आदि स्त्रियाँ भी मोक्ष प्राप्त कर लेंगी, इसलिये ऐसा होना सर्वथा असंभव है। स्त्रियों में प्रकृति के दोष के कारण अभव्यकाल रहता है, क्योंकि स्त्रियों के शरीर में अनेक सम्मूर्छन मनुष्य प्रतिसमय उत्पन्न और मरण को प्राप्त होते रहते हैं। अब यह बताते हैं कि कौन मोक्ष जाने के योग्य होता है? बिना उत्तम संहनन के मोक्षप्राप्ति असंभव है और स्त्रियों के वह होता नहीं। स्त्रियों की पर्याय उत्तम नहीं निंद्य है, स्त्रियाँ निर्ग्रन्थ अवस्था को धारण नहीं करती एवं जब उनको ऋद्धियाँ ही नहीं भा. सं. गा. 93-94 भा. सं. गा. 97-98 377 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org