________________ सचित्ताचित्त। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदि की यथायोग्य पूजन करना सचित्त पूजा है। तीर्थंकर और गुरु आदि के शरीर की प्रतिकृति की तथा द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज अथवा धातु आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है वह अचित्त पूजा कहलाती है। जो दोनों का पूजन किया जाता है वह मिश्र पूजा कहलाती है। यहाँ मिश्र द्रव्य पूजा से यह आशय है कि - जल, गंध आदि द्रव्यों से जो देवशास्त्रगुरु की समुच्चय पूजा की जाती है अथवा समवसरण सहित अरिहंत की पूजा अथवा शास्त्र सहित मुनि की पूजा अथवा साक्षात् विराजमान अरहंतादि के साथ सिद्ध भगवान् या समाधिस्थ साधुओं की पूजा करना अथवा प्रासुक द्रव्य एवं अप्रासुक द्रव्यों से जिनेन्द्र देव की साक्षात् पूजा अथवा प्रतिमा आदि की पूजा करने को मिश्र द्रव्य पूजा कहते हैं। इसी विषय में आचार्य लिखते हैं कि - आगम, नो आगमादि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जाकर जैसा मार्ग शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है, उससे द्रव्यपूजा करनी चाहिये। क्षेत्रपूजा - जिनेन्द्र भगवान् की जन्मकल्याणकभूमि, तपकल्याणकभूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थल, तीर्थचिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में जैसे शास्त्रों में वर्णित किया गया विधान से क्षेत्र पूजा जानना चाहिये। इन सबको तिलोयपण्णत्तिकार ने क्षेत्र मंगल कहा है और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैं - पावानगरी, ऊर्जयन्त पर्वत, चम्पापुर आदि हैं तथा साढ़े तीन हाथ से लेकर पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण आकाश प्रदेश के स्थान हैं अर्थात् उन स्थानों से मुक्ति प्राप्त करने वाले जीवों के शरीर की अवगाहना से जितना आकाश प्रदेश रोका गया है उतना स्थान क्षेत्र मंगल है अथवा केवलज्ञान से व्याप्त आकाश क्षेत्रमंगल है अथवा लोकपूरण समुद्घात के द्वारा पूरित जगत्श्रेणी के घनप्रमाण आत्मा के प्रदेशों से व्याप्त समस्त लोक क्षेत्र मंगल है। इस प्रकार समस्त लोक के प्रदेश भी क्षेत्रमंगल हैं।' वसु. श्रा. गा. 449-450, गुण. श्रा. 219-221 वसु. श्रा. गा. 451 वही गा. 452 ति. प. 1/22-24 355 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org