________________ कालपूजा - जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमण, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक हुए हैं उस दिन जिन भगवान का अभिषेक करें तथा संगीत नाटकादि के द्वारा जिनगुणगान करते हुए भक्ति करना चाहिये। इसी प्रकार नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनों तथा सोलहकारण व्रत के दिनों में, दशलक्षण व्रत के दिनों में तथा अन्य भी उचित पणे में जिन महिमा का मण्डन किया जाना चाहिये वही कालपूजा है। और भी किसी घटना के दिनों में पूजन करना भी कालपूजा है।' भावपूजा - भावपूजा के स्वरूप को प्रकाशित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - परमभक्ति से युक्त, अठारह दोषों से रहित वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान् के अनन्त चतुष्टयों का, अष्ट प्रतिहार्यों का, जन्म के दस, केवलज्ञान के दस तथा देवकृत चौदह अतिशय आदि 46 मूलगुणों एवं अन्यान्य गुणों का तीनों सन्धिकालों में गुणानुवाद करना भावपूजा है। अथवा पूर्वानुपूर्वी, पश्चातानुपूर्वी और याथातथ्यानुपूर्वी आदि अनेक प्रकार से णमोकार महामंत्र का जाप करना भी भावपूजा है। अथवा जिनेन्द्र भगवान् की स्तोत्रों के माध्यम से भक्ति करने को भी भावपूजा कहा है। अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है उसे भी भावपूजा या भाव अर्चना कहा गया है।' आचार्य देवसेन स्वामी पुण्य प्राप्ति हेतु गृहस्थ श्रावाकों को भक्तिपूर्वक भगवान् की पूजा की विधि को प्ररूपित करते हुए कहते हैं कि पूजा करने करने वाले गृहस्थ को सर्वप्रथम प्रासुक जल से स्नान करना चाहिये। शुद्ध वस्त्र पहनना चाहिये फिर पूजा करने के लिए मन्दिर को ईर्यापथ शुद्धि से जाना चाहिये, वहाँ जाकर पद्मासन से बैठना चाहिये। पश्चात् पूजा के समस्त उपकरण अपने पास रखना चाहिये और मंत्र पूर्वक मूर्ति स्नान कराना चाहिये और मंत्रपूर्वक आचमन करना चाहिये। पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हुए यह पुरुष मन, वचन, काय तीनों योगों से प्रतिदिन पाप कर्मों का आश्रव करता है, उन समस्त पापकर्मों को वह परुष शीघ्र ही नाश कर देता है। दताहा 1 वसु. श्रा. गा. 453-455 वही गा. 456-458 356 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org