Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 373
________________ किनारे बैठकर गोमुखी में माला डालकर जप करते हैं और मछली पकड़ने के लिये काँटा डाल देते हैं। ऐसा करने से निश्चित रूप से वे महापाप का बन्ध ही करते हैं। विचार करें तो जो पाप कर्म, मन, वचन, काय के योग अथवा चपलता से बाँधे हैं, वे मात्र तीर्थस्थान के जलस्पर्श मात्र करने से कैसे नष्ट हो सकते हैं? आत्मा में लगे कर्म जल के स्पर्श से नहीं छूट सकते हैं। जब उस तीर्थ जल से मलमूत्र, रुधिर, मांस आदि धातुओं से परिपूर्ण एवं रजोवीर्य से उत्पन्न हुआ महान् अपवित्र शरीर शुद्ध नहीं होता है फिर सूक्ष्म अमूर्तिक आत्मा में लगे सूक्ष्म कर्म कैसे छूट सकते हैं? अतः न तो आत्मा शुद्ध होती है और न ही घृणित धातुमय शरीर। यह चित्त अन्तरंग में अत्यन्त दुष्ट है, यह तीर्थों के जल से कभी शुद्ध नहीं हो सकता जिस प्रकार मद्य से भरा घड़ा कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता चाहे उसे सौ-सौ बार पवित्र जल से ही क्यों न धोया जाय। इसी सन्दर्भ में गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि - एक ब्राह्मण जो वेद-वेदाङ्ग का ज्ञाता किसी जल रहित प्रदेश में पहुँच गया और वह बिना जल शुद्धि किये ही मरण को प्राप्त हो गया। अब बिना जलशुद्धि के कारण नरक गया तो उसका वेदज्ञान निरर्थक हो जायेगा और यदि वह स्वर्ग जाता है तो जलशुद्धि व्यर्थ हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा की शुद्धि जल से कभी नहीं हो सकती। आगे भी श्रीकृष्ण कहते हैं कि - हे अर्जुन! यह शुद्ध आत्मा एक नदी है जो संयम रूपी जल से भरी हुई है, सत्यवचन ही इसके प्रवाह हैं, शील पालन करना ही इसके किनारे हैं और दया करना ही इसकी लहरें हैं। अतः ऐसी शुद्ध आत्मा रूपी नदी में ही स्नान करना श्रेष्ठ है अर्थात् ऐसे शुद्ध आत्मा में लीन हो तभी आत्मा पूर्ण शुद्ध हो सकती है। समाधि अथवा ध्यान को धारण करने से चित्त की शुद्धि, सत्य भाषण से मुख की शुद्धि और ब्रह्मचर्य आदि से शरीर. शुद्ध होता है। इस प्रकार ये बिना गंगा स्नान के ही शुद्ध हो जाते हैं। एक विषय विचारणीय है कि जो कामोन्मुख होकर स्त्रियों के वश में होकर सैकड़ों तीर्थों में स्नान करे तो भी वह कभी शुद्ध नहीं हो सकता है। शुद्धि को प्राप्त करने का उपाय बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार से अग्नि का संयोग होने से सोना शद्ध होता है उसी प्रकार रत्नत्रय से सहित आत्मा तप 367 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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