________________ निष्कर्ष अनादिकाल से यह संसारी प्राणी मिथ्यादर्शन और कषाय आदि के वश में होकर पञ्चेन्द्रिय के विषयों में आसक्त होता हुआ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आदि अनेक दु:खों को निरन्तर भोग रहा है। इस संसार परिभ्रमण से मुक्त होने के लिए जीव को रत्नत्रय रूपी महौषधि का सेवन करना होगा और अपने वास्तविक स्वरूप में लीन होकर आत्मशक्ति से कर्मों का नाश करना होगा। इसमें रत्नत्रय को गर्भित करते हुए तप, को जोड़कर चार आराधनाओं का वर्णन आचार्य देवसेन स्वामी द्वारा सहज रूप से किया गया है। आराधक के गुणों और उसकी पात्रता का भी वर्णन किया है। आराधक का विभिन्न लक्षणों और उपमाओं द्वारा प्ररूपण करते हुए आराधना का फल सल्लेखना बताया है। उपसर्ग और परीषहों के आने पर भी सल्लेखना में अडिग रहने का उपदेश देते हुए उपसर्ग विजेता मुनिराजों की कथाओं का उल्लेख भी किया है। भारतीय ध्यान परम्परा अतिप्राचीन है। चार्वाक को छोड़कर भारत के प्रत्येक दर्शन ने किसी न किसी रूप में ध्यान की सत्ता को स्वीकार किया है। ध्यान में एकाग्रता का होना अत्यावश्यक है। अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन के ध्यान की अवधारणा मे भिन्नता प्रतीत होती है, इसलिए जैनाचार्यों ने ध्यान का स्वरूप अत्यन्त सुन्दरता से वर्णित किया है। ध्यान के भेदों का वर्णन आचार्य देवसेन स्वामी ने मौलिक किया है। आचार्य ने आर्त और रौद्र ध्यान के पश्चात् भद्र ध्यान जो अन्य किसी आचार्य ने वर्णित नहीं किया है, का वर्णन किया है। वह वास्तव में अपूर्व है। तत्पश्चात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान का निरूपण किया है। यहां उनका आशय यह है कि गृहस्थ के धर्म्यध्यान की साधना सहज नहीं है, परन्तु वह आर्त-रौद्र ध्यान से पाप बंध का अर्जन करता है, उसको अपने सद्ज्ञान और भद्रध्यान से नष्ट करता है। इसके पश्चात् चारों ध्यानों के साथ भद्रध्यान का स्वरूप विशेष रूप से प्रदर्शित किया है। फिर आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान के भेदों का वर्णन करते हुए ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल प्ररूपित किया है। इसमें ही विशेष रूप से एक शून्य ध्यान का वर्णन किया है जो बिल्कुल शुक्ल ध्यान की ही तरह निर्विकल्पक बताया है, जो अन्य किसी आचार्य के द्वारा प्ररूपित नहीं किया गया। जिसमें ध्यान, ध्येय और ध्याता का विकल्प नहीं है, किसी भी प्रकार का 361 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org