________________ लिखते हैं कि - याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं।' पूजा का स्वरूप बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की तथा शास्त्रों की जो वैभव युक्त होकर गुणों का अनुराग और भक्ति की जाती है उसे पूजन विधान कहते हैं। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - पंच परमेष्ठियों एवं शास्त्रों की विभिन्न प्रकार से अर्चना करने को पूजन कहा है। जिस विशिष्ट शुभ विधि के अन्तर्गत पंचपरमेष्ठी आदि की आराधना की जाती है उसे पूजन कहते हैं। देव-शास्त्र-गुरु और चौबीस तीर्थंकरों आदि की जो गुणानुराग, स्तुति और भक्ति की जाती है वही पूजा कहलाती है। पूजा के विषय में आचार्य समन्तभद्रस्वामी कुछ विशेषरूप से वर्णित करते हुए कहते हैं कि - श्रावक को आदर से युक्त होकर प्रतिदिन मनोरथों को पूर्ण करने वाले और काम को भस्म करने वाले अरिहन्त भगवान् के चरणों में समस्त दु:खों को दूर करने वाली पूजा करते समय पूज्य, पूजक, पूजा और पूजा के फल का विचार जरूर करना चाहिये। जिसने काम-क्रोधादि विकारी भावों को भस्म कर दिया है ऐसे वीतराग जिनेन्द्रदेव पूज्य हैं। इसके अलावा विकारीभावों को आंशिक रूप से नष्ट करने वाले निर्ग्रन्थ गुरु तथा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कराने में सहायक होने से समीचीन शास्त्र भी पूज्य हैं। यद्यपि ये सब पूजा से प्रसन्न होकर किसी को कुछ भी नहीं देते और इनकी निन्दा करने से अप्रसन्न होकर किसी का भी कुछ अनिष्ट नहीं करते हैं, फिर भी मनोरथों को पूर्ण करने वाले कहे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि जब इनकी पूजा करने वाला इनकी पूजा करता है, तब उसके हृदय में जो भगवान् आदि के प्रति शुभराग पैदा होता है तो उसके कारण ही पुण्यकर्म का बन्ध होता है और पापकर्म का अनुभाग क्षीण होता है। अतः इससे सुख की प्राप्ति और दु:ख का नाश अपने आप ही हो जाता है। उनके गुणों में जो अत्यन्त आदरभाव रखता है वह पूजक कहलाता है। प्रभु आदि की परिचर्या, सेवा, उपासना को पूजा कहते हैं। समस्त दु:खों का दूर हो जाना ही पूजा का फल है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि - पूज्य वही हो सकता है जो सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला म. पु. 67/193 वसु. श्रा. गा. 380 348 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org