________________ पञ्चम परिच्छेद : पुण्य का मुख्य कारण - पूजा इस संसार में रहने वाला प्रत्येक प्राणी दु:ख से छूटकर सुख प्राप्त करना चाहता है, परन्तु वह उस परम सुख की प्राप्ति के लिये उचित उपाय करने में उत्साहित नहीं रहता है और प्रमाद करता हुआ कषाय और योग से निरन्तर प्रति समय आयुकर्म के अलावा शेष सात कर्मों का बन्ध करता रहता है, क्योंकि आयुकर्म का बन्ध आठ अपकर्ष कालों में ही होता है। इसीलिये आचार्य भगवान् उपदेश देते हैं कि इस संसार के जान को छोड़कर मुनिव्रत का पालन करो और कर्मनाश करके मोक्ष रूपी परमसुख को प्राप्त करो। परन्तु फिर भी यह श्रावक मुनिव्रत का पालन करने में असमर्थ रहता है तो उसे कम से कम पाप क्रियाओं को छोड़कर पुण्यास्रव के मार्ग में लग जाना चाहिये। यदि कोई यह कहता है कि वर्तमान पंचम काल में तो मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है तो उसके लिये पुरुषार्थ करना व्यर्थ है? जब मोक्ष प्राप्ति का समय आयेगा तो तभी हम पुरुषार्थ कर लेंगे तो ऐसे लोगों के लिये आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्वत् नारकम्। छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्।' अर्थात् व्रतों के नहीं पालने से नरक पर्याय प्राप्त होती है तो व्रतों के पालन करने से देवों की पर्याय प्राप्त करना श्रेष्ठ है। जैसे कि कोई व्यक्ति किसी अन्य की प्रतीक्षा कर रहा है तो धूप में रहकर करने की अपेक्षा छाया में खडे रहना श्रेष्ठ है। अतः आचार्य कहना चाहते हैं कि जब मोक्ष के योग्य समय की प्रतीक्षा ही करनी है तो पापास्रव करके नरक में करने की अपेक्षा पुण्यासव करके स्वर्ग में देवपर्याय में सुखों को भोगते हुए ही क्यों न करे? अर्थात् यही श्रेष्ठ है। पुण्यास्रव किन-किन कारणों से होता है तो श्रावक के करने योग्य कार्यों में आचार्यवर कुन्दकुन्दस्वामी तो कहते हैं कि - 'दाणंपूया मुक्खं' एवं दान और पूजा ही हैं जो श्रावक को महान् पुण्य का आस्रव कराने में मुख्य साधन हैं। यद्यपि पाप और पुण्य दोनों ही संसार के कारणभूत हैं तथापि पाप तो सर्वथा हेय है और पण्य तात्कालिक उपादेय है। ऐसा कौन सा पुरुष है जो पुण्य क्रियाओं इष्टोपदेश श्लोक 3 346 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org