________________ आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि - जिस प्रकार मध्यम खेत में बोया गया बीज अल्पफल वाला होता है उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान मध्यम फल वाला होता है। जिस प्रकार ऊसर खेत में बोया गया बीज कुछ फल नहीं देता उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी फल रहित समझना चाहिये। अपात्र विशेष में दिया गया दान किस प्रकार का फल देने वाला होता है सो बताते हैं - किसी अपात्र में दिया गया दान अत्यन्त दु:ख देने वाला है। जैसे - विषधर को दिया गया दूध भी तीव्र विष रूप हो जाता है। यहाँ आचार्य का यह आशय है कि दान देना स्वयं के लिये हानिकारक भी हो सकता है अगर वह विवेकपूर्वक न दिया गया हो। यदि किसी अपात्र को आपने दान दिया और उसने उसका दुरुपयोग किया तो आपका ही दान आपको दुःख देने वाला है। कुपात्र और उनकी सेवा करने वालों की स्थिति बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - जिस प्रकार पत्थर की बनी हुई और पत्थरों से भरी हुई नाव उन पत्थरों को भी डुबा देती है और स्वयं भी डूब जाती है, उसी प्रकार कुपात्र भी संसार समुद्र में डूब जाता है और अन्य को भी डुबा देता है। जैसे किसी कुत्सित स्वामी के आश्रित रहने वाले सेवक को उसकी सेवा का श्रेष्ठ फल नहीं मिलता वैसे ही कुत्सित पात्रों को दिया हुआ दान भी अच्छा फल कभी नहीं दे सकता।' ___ अतएव जो भी अपने आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष में पहुँचाना चाहते हैं उनको चाहिये कि वे ऊपर लिखे अनुसार पात्र-अपात्रों के भेदों को अच्छी प्रकार समझकर प्रयत्नपूर्वक सदाकाल उत्तम पात्रों को दान देते रहें। भोगभूमि में कल्पवृक्ष . जो जीव उत्तमादि पात्रों को दान देते हैं वे उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं। उन सभी भोगभूमियों में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं।' वे एकेन्द्रिय जीवों की वनस्पति जाति के नहीं अपितु पृथ्वीकायिक होते हैं। क्षेत्रजन्य स्वभाव से ही वे जिन जीवों ने पूर्व भव में पुण्य किया है ऐसे जीवों को उत्तम प्रकार वसु. श्रा. गा. 241-243 भा. सं. गा. 547, 550 वही गा. 588-591 335 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org