________________ इसको दान दिया समझो उसने शरीर का दान ही दिया। जब तक आहार है तब तक शरीर है, जब तक शरीर है तब तक प्राण हैं, प्राण हैं तो रूप है, तब तक ही ज्ञान है और तब तक ही विज्ञान है। बिना आहार के सब नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही शरीर के रहने पर तपश्चरण है, तप से कर्मों का नाश. कर्मों के नाश से ज्ञान की प्राप्ति और ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये आहार दान की महिमा को कोई भी नहीं कह सकता। उसकी महिमा गान करने में शब्दों का संयोजन फीका पड़ जाता है। आचार्य देवसेन स्वामी और भी आहार दान की महिमा कहते हैं कि - घोड़ा, हाथी, गाय, पृथ्वी, रत्न, वाहेन आदि का दान देने वालों को उतनी तृप्ति नहीं होती जितनी सदाकाल आहार दान देने से होती है। जिस प्रकार समस्त रत्नों में वज्र रत्न उत्तम है, समस्त पर्वतों में मेरु उत्तम है उसी प्रकार सभी दानों में आहार दान सर्वोत्तम है।' - इस प्रकार उपर्युक्त सभी तथ्यों को जानकर रत्नत्रय के धारी पात्रों को आहार दान अवश्य ही देना चाहिये। जो पुरुष शक्ति और साधन से सम्पन्न होने पर भी मुनिराजों को आहार दान नहीं देता, ऐसे लोभीजनों के प्रति आचार्य कहते हैं कि - जो पुरुष अन्न-धन आदि के होते हुए भी मुनियों को कुभोजन देता है, उसकी पीठ को दरिद्रता अनेक जन्मों तक नहीं छोड़ती अर्थात् अनेक जन्म तक वह लोभी / कृपण दरिद्री बना रहता है।' आचार्य देवसेन स्वामी और भी कहते हैं कि जो पुरुष धन-सम्पदा के होने पर भी अत्यन्त मोह के कारण सुपात्रों को दान नहीं देता वह स्वयं ही स्वयं को ठगता है। लोभी पुरुष को उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं कि - लोभी न तो स्वयं धन का भोग करता है और न ही किसी पात्र को दान देता है तो वह भूसे से बने पुतले के समान खेत में खड़ा रहने वाले के समान होता है जो खेत में न स्वयं खाता है और न दूसरों को खाने देता है बस दसरों के लिये धन की रक्षा करता रहता है। जिस प्रकार मधमक्खी अपने छत्ते में शहद को इकट्ठा करती रहती है परन्तु स्वयं उसका उपभोग नहीं करती और दूसरा कोई आता है, सारा शहद निकालकर ले जाता है और सैकडों मधमक्खियों भा. सं. गा. 525-526 भा. सं. गा. 516 341 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org