________________ को भी मार जाता है। उसी प्रकार जो कृपण केवल धन को इकट्ठा करता रहता है वह उसका उपभोग नहीं करता है और वह जब मरता है तो सारा धन दूसरों के लिये ही छोड़ जाता है। इसी प्रकार भर्तृहरि ने भी अपनी कृति में उल्लेख किया है कि दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिभर्वति।।' इसमें इनका भी यही तात्पर्य है कि धन की तीन गतियाँ हैं - दान, भोग और नाश जो व्यक्ति न दान देता है, न भोग करता है तो वह धन नाश को प्राप्त होता है। इसी प्रकार लोभी को तो आचार्यों ने महादानी कहा है, क्योंकि वह थोड़ा-थोड़ा दान नहीं देता बल्कि जब मरता है तब सम्पूर्ण संग्रहीत धन को छोड़कर चला जाता है। अब आचार्य लोभी / कृपण पुरुष को दान देने के लिये व्यावहारिक जीवन से उसका साक्षात्कार कराते हुए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि - लक्ष्मी, यौवन और जीवन कभी भी किसी का स्थिर नहीं रहता, इसलिये इस वास्तविक तथ्य को समझकर श्रेष्ठ पुरुषों को श्रेष्ठ पात्रों को सदा काल दान देते रहना चाहिये। दान की दुर्लभता का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - संसार में धन बड़े दुःख से प्राप्त होता है और कदाचित् मिल भी जाय तो चित्त में दान देने का भाव अत्यन्त कठिन है। कदाचित् भाव हो भी जायें तो किसी योग्य पात्र का मिलना अतिकठिन है। यदि किसी विशेष पुण्य के उदय से पात्र भी मिल जाय तो अपने स्वजन-परिजन अनुकूल नहीं रहते हैं। यदि स्वजन (स्त्री-पुरुष आदि) ही प्रतिकूल हो गये तो धर्मायतनों में भी दान देने में विघ्न बनकर नरकादि दुर्गतियों में ले जाने वाले कार्यों का उपदेश देते हैं। यदि ऐसा कोई करता है तो वह स्वजन कैसे हो सकता है? वह तो शत्रु के समान ही है। जो हमको धर्म पालन करने में सहायक होता है वही वास्तव में स्वजन बन्धु और मित्र कहलाता है।" भा. सं. गा. 557-559 नीतिशतकम्, श्लो. 43 भा. सं. गा. 560 वही गा. 561-565 342 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org