________________ सवर्ण, अन्न आदि पदार्थों का दान नहीं देवे।' यहाँ आचार्य कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि कुपात्रों और अपात्रों को यदि इन द्रव्यों को दान देता है तो यह सर्प को दूध पिलाने के समान अशुभकारी ही होता है। अतः इनको दया बद्धि से ही दान देना चाहिये न कि पात्र समझकर। आहार दान की विधि आहार दान देने की विधि सभी आचार्यों ने एक समान ही व्याख्यायित की है। वह है नवधा भक्ति। इसमें किसी भी आचार्य का कोई भी मतभेद नहीं है। वह नवधा भक्ति इस प्रकार है प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, आहार-जल शुद्धि।' अब संक्षेप में इनका सामान्य स्वरूप देखते हैं - अपने घर के द्वार पर साधु को देखकर 'मुझ पर कृपा करें' ऐसी प्रार्थना करके तीन बार 'नमोऽस्तु' कहकर तीन बार 'अत्र अत्र, तिष्ठ तिष्ठ' कहकर ग्रहण करना प्रथम प्रतिग्रह विधि है। साधु के स्वीकार करने पर अपने घर के भीतर ले जाकर निर्दोष बाधा रहित स्थान में ऊँचे आसन पर बैठाना दुसरी विधि उच्चस्थान या उच्चासन है। साधु के आसन ग्रहण कर लेने पर प्रासुक जल से उनके पैर धोना और उनके पादजल की वन्दना करना तीसरी विधि पाद-प्रक्षालन है। पैर धोने के बाद गंधोदक लेकर अष्ट द्रव्य से साधु की पूजा करना चतर्थ अर्चन विधि है। तदनन्तर साध को प्रणाम करना पंचम नमस्कार विधि है। आर्त और रौद्रध्यान छोड़कर मन को शुद्ध करना मनशुद्धि छठवीं विधि है। निष्ठुर और कर्कश आदि वचनों के त्याग करने को सातवीं वचनशुद्धि विधि है। सब ओर से विनीत अंग रखना कायशुद्धि आठवीं विधि है। चौदह मल दोषों से रहित यत्नाचार पूर्वक शोधकर जो आहार-जल आदि की शुद्धि है वह आहार-पान अर्थात् एषणा शुद्धि नौवी शुद्धि जानना चाहिए।' सा. ध. 5/53 पु. सि. श्लो. 168, भा. सं. गा. 528, वसु. श्रा. गा. 225, सा. ध. 5/45, र. क. श्रा. श्लो. 113 टीका वसु. श्रा. गा. 226-231 339 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org