________________ के भोग-उपभोग सामग्री प्रदान करते हैं। वे दस प्रकार के कल्पवृक्ष इस प्रकार हैं-मद्यांग, तर्याग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजनांग और मालांग।' अब उन दस प्रकार के कल्पवृक्षों का लक्षण बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - अतिसरस, अतिसुगन्धित और जो देखने मात्र से ही अभिलाषा को पैदा करते हैं, इन्द्रिय बल पुष्टि कारक पानक मद्यांग वृक्ष देते हैं। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - अत्यन्त सरस-स्वादिष्ट, अतिसुगन्धित और जो देखने मात्र से ही पीने की इच्छा पैदा करते हैं, ऐसे इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले पेय पदार्थ मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष देते हैं। यह पेय इन्द्रियों को पुष्टिकारक होते हैं, मद अर्थात् गाढ मूर्छा को उत्पन्न नहीं करते हैं। अब तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष की विशेषता बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष तत, वितत, घन और सुषिर स्वर वाले वीणा, पटु, पटह, मृदंग, ढोलक, तूमरा आदि कई प्रकार के वादित्रों को देते हैं। वीणा आदि के शब्द को तत कहते हैं। ढोल, तबला आदि के शब्द को वितत कहते हैं। कांसे के बाजों के शब्द को घन कहते हैं और बासुरी, शंख आदि के शब्दों को सुषिर कहते हैं। आगे कहते हैं - भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुण्डल, हार, मेखला, केयूर, भाल-पट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र, नूपुर, मुद्रिकायें, अंगद, असि, छुरी, गैवेयक और कर्णपूर आदि सोलह जाति के आभरणों को प्रदान करते हैं।' ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्य की तरह होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कांति का संहरण करते हैं अर्थात् उन वृक्षों से इतना तेज प्रकाश निकलता है कि जिसके सामने सूर्य-चन्द्र का आभास तक मालूम नहीं पड़ता। ये वृक्ष हमेशा प्रकाशमान रहते हैं, अतः वहाँ कभी रात-दिन का भेद मालूम नहीं पड़ता है। गृहांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के विशाल-विशाल दिव्य प्रासादों को प्रदान करते हैं। . वसु. श्रा. गा. 250-251 वही गा. 252 स. सि. 5/24, का. अ. गा. 206 टीका वसु. श्रा. गा. 253 336 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org