Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 340
________________ वह सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होता है और वहाँ भोगों को भोगकर दो या तीन भवों में समस्त कर्मों का नाश करके मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं।' ___ अब कहते हैं कि यदि कोई मिथ्यादृष्टि जीव उत्तम पात्र को दान देता है तो उसको क्या फल प्राप्त होता है सो बताते हैं - उत्तम पात्र के लिये दान देने से अथवा उनके लिये दिये हुए दान की अनुमोदना से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं वे उसमें जीवन पर्यन्त नीरोग रहकर सुख से बढ़ते हैं। यदि मिथ्यादृष्टि जीव मध्यम पात्र को दान देता है तो वह मध्यम भोगभूमि के भोगों को प्राप्त होता है और यदि वही जीव जघन्य पात्र को दान देता है तो वह जघन्य भोगभूमि के भोगों को प्राप्त करता है।' कुपात्रों को दान देने से क्या फल प्राप्त होता है, सो आचार्य कहते हैं कि - जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय कषाय में अधिक प्रवृत्त हैं, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार, दान, कुदेव रूप में या कुमानुष रूप में पहुँचाता है। आचार्य जिनसेन स्वामी तो कहते हैं कि - कुपात्र दान के प्रभाव से मनुष्य, भोग भूमियों में तिर्यञ्च होते हैं या कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अन्तर द्वीपों का उपभोग करते हैं।' आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - कुपात्र को दान देने वाले जो मनुष्य मरकर कुभोग भूमि में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से आकर भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं वहाँ की भी आयु पूर्णकर वे फिर मनुष्य और तिर्यञ्च पर्याय में उत्पन्न होते हैं और वहाँ भी अनेक प्रकार के पाप करके नरक में जा पड़ते हैं और वर्तमान में जो चाण्डाल, भील, छीपी, डोम, कलाल आदि निम्न श्रेणी के लोग धन और विभूति आदि से परिपूर्ण दिखाई देते हैं वे सब कुत्सित पात्रों को दान देने से ही धनी होते हैं। और भी कहते हैं कि - राजाओं के घर में जो हाथी, घोड़ा आदि उन्नति को प्राप्त होते हैं वे सब कुपात्र दान देने का ही फल समझना चाहिये। कुपात्रों को दान देने वाले स्वर्गों में भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे वहाँ वाहन रूप में उत्पन्न होकर दु:ख प्राप्त करते रहते हैं। अमि. श्रा. 11/102,123 महा. पु. 9/85, भा. सं. गा. 499, अमि. श्रा. 62, वसु. श्रा. गा. 245 भा. सं. गा. 500, वसु. श्रा. गा. 246-247 प्र. सा. गा. 257 ह. पु. 7/115, भा. सं. गा. 533, वसु. श्रा. गा. 248, अमि. श्रा. गा. 84 भा. सं. गा. 542-543 334 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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