________________ आदिनाथ को सर्वप्रथम आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने दान की परम्परा का प्रारम्भ किया था। इसी कारण उनको दान रूपी तीर्थ को चलाने के कारण दान तीर्थंकर के नाम से भी जाना जाता है। कहते हैं कि भरत चक्रवर्ती ने भी राजा श्रेयांस की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और उनका बहुत सम्मान भी किया था और उनको आदर के साथ प्रणाम भी किया था। ऐसे महान पुण्य का कारण दान सभी आचार्यों का गृहीत विषय रहा है। दान का महत्त्व बताते हुए आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि - सुपात्र में चार प्रकार का दान देना और श्री देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करना श्रावक का परम धर्म है। नित्य इन दोनों को जो अपना मुख्य कर्तव्य मानकर पालन करता है वही श्रावक है, धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि है। आगे कहते हैं कि - सुपात्रों को दान देने से भोग-उपभोग की सामग्री तथा स्वर्गसुख मिलता ही है, क्रमशः मोक्ष सुख भी मिलता है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। उसी प्रसंग में और भी कहते हैं कि - जो श्रावक मनियों को आहारदान के पश्चात् अवशेष अंश का सेवन करता है वह संसार के सारभूत सुखों को प्राप्त होता हुआ शीघ्र ही मोक्षसुख को पाता है। पात्रदान का महत्त्व बताते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि - जिस प्रकार जल खुन को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित निर्ग्रन्थ मुनियों के लिये दिया हुआ दान गृहस्थी सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित सुदृढ़ कर्म को भी नष्ट कर देता है। आगे कहते हैं कि - तप के भण्डार स्वरूप मुनियों को नमस्कार करने से उच्च गोत्र, आहारादि दान देने से भोग, प्रतिग्रहण आदि करने से सम्मान, भक्ति करने से सुन्दर रूप और स्तुति करने से सुयश प्राप्त किया जाता है।' जिस प्रकार उत्तम पृथ्वी पर बोया गया बीज लाखों गणा या करोडों गणा फलता है. उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया गया दान इच्छानुसार फल को देता है। यदि कोई सम्यग्दृष्टि जीव उत्तम पात्र को दान देता है तो वह स्वर्ग लोक में जाकर महा ऋद्धियों को महाविभूतियों को धारण करने वाला उत्तम देव होता है। इसी विषय को आचार्य अमितगति लिखते हैं कि - उत्तमपांत्र को दान देकर समाधिपूर्वक यदि मरण करता है र. सा. गा. 16 वही गा. 22 र. क. श्रा. 114-115 भा. सं. गा. 501-502 333 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org