________________ गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह अथवा बल युक्त है और जिसका मरण काल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण दीर्घ काल के बाद होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। इस मरण में आचार्य पद त्याग, परगण गमन, सबसे क्षमा, आलोचना पर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण, विशेष भावनाओं का चिन्तन, क्रम पूर्वक आहार का त्याग आदि कार्य व्यवस्थित रहते हैं। (ii) अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण - जिनकी सामर्थ्य नहीं है, जिसका मरण काल सहसा उत्पन्न हुआ है, ऐसे पराक्रम रहित साधु के मरण को अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। यह मरण तीन प्रकार का है' (a) निरुद्ध - रोगों से पीड़ित होने के कारण जिनका जंघाबल क्षीण हो गया हो, जिससे परगण में जाने में असमर्थ हो, वे मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण करते हैं। इसके दो भेद हैं - क्षपक के मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल उनके बान्धव आदि का विचार करके अनुकूल कारणों के होने पर उस मरण को प्रकट किया जाता है, वह प्रकाश है और प्रकट न करना अप्रकाश है। (b) निरुद्धतर - तीव्र शूल रोग, चोर, म्लेच्छ, शत्रु, सर्प, अग्नि, व्याघ्र, हाथी आदि से तत्काल मरण का प्रसंग होने पर जब तक कायबल शेष रहता है और तब तक तीव्र वेदना से चित्त आकुलित नहीं होता और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना जानकर अपने गण के आचार्य के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना कर जो मरण करता है वह निरुद्धतर अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण है। (c) परम निरुद्ध - सर्प, अग्नि आदि कारणों से पीडित साधु के शरीर का बल और वचन बल यदि क्षीण हो जाये तो उसे परम निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। भग. आरा. गा. 2021 318 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org