Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 323
________________ पण्डितमरण के तीन भेद हैं प्रायोपगमन मरण, इंगिनीमरण और भक्त प्रत्याख्यान अथवा भक्त प्रतिज्ञामरण। आहार आदिक के क्रम से त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों मरण समान हैं। इनमें शरीर के प्रति उपेक्षा के भाव का ही अन्तर है। 1. प्रायोपगमन मरण - जो मुनि न तो स्वयं अपनी सेवा करते हैं और न ही दूसरों से करवाते हैं। तृणादि का संस्तर भी नहीं रखते, इस प्रकार स्व-पर अनग्रह से रहित शरीर से निस्पह होकर स्थिरता पूर्वक मन को विशद्ध बनाकर मरण को प्राप्त करते हैं, उसे प्रायोपगमन मरण कहते हैं। भव का अन्त करने योग्य संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोपगमन हैं, अर्थात् विशिष्ट संहनन और संस्थान वाले ही प्रायोपगमन मरण ग्रहण करते 2. इंगनि मरण - जिसमें सल्लेखनाधारी अपने शरीर की सेवा, परिचर्या स्वयं तो करता है, परन्तु दूसरों से नहीं कराता, उसे इंगनिमरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं उठेगा, स्वयं बैठेगा और स्वयं लेटेगा। इस तरह वह अपनी समस्त क्रियायें . स्वयं करता है। स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं। अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है, वह इंगिनीमरण कहलाता है। 3. भक्तप्रत्याख्यान मरण - जिस मरण में अपने और दूसरों के द्वारा किये गये उपकार वैयावृत्ति की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है अर्थात् जिसमें क्रम से आहारादि का त्याग करते हुए मरण किया जाता है, उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। यद्यपि आहार त्याग उपरोक्त दोनों मरणों में भी होता है, तथापि इस लक्षण का प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है। इस मरण के दो भेद किये गये हैं (i) सविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण - नाना प्रकार के चारित्र में विहार करना विचार है। इस विचार के साथ जो वर्तन करता है, उसे सविचार कहते हैं। जो भग. आरा. गा. 67 317 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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