________________ इन चारों में से आचार्य देवसेन स्वामी ने अभयदान को सर्वप्रथम प्ररूपित करते हुए कहते हैं कि - 1. अभयदान - जो जीव अपने मरने से भयभीत हो रहे हों ऐसे समस्त जीवों को भयमुक्त करना अभयदान कहलाता है। जो इसे देता है वह तीनों लोकों में निर्भय और सभी मनुष्यों में उत्कृष्ट होता है। इस दान में जीवों की रक्षा करना तथा मुनि आदि चतुर्विध संघ के लिये आवासादि की व्यवस्था करना भी गर्भित रहता है। 2. शास्त्रदान -- मुनि आदि चतुर्विध संघ को ज्ञान के उपकरण शास्त्रादि प्रदान करना, संयम का उपकरण पीछी और शुचिता का उपकरण कमण्डलु आदि प्रदान करना, शास्त्र या उपकरणदान कहलाता है। पाठशाला खोलना, व्याख्यान देकर धर्म और कर्त्तव्य का ज्ञान कराना भी शास्त्र या ज्ञान दान की कोटि में आता है। आचार्य कहते हैं कि जो शास्त्रदान देता है, जिनागम पढ़ाता है वह पुरुष मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दोनों को पूर्णरूप से प्राप्त करता है। बुद्धि और तपश्चरण के साथ-साथ अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान को भी प्राप्त करता है। 3.. औषधिदान - आवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से पीड़ित चतुर्विध देना औषधिदान है। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - जो औषधिदान देता है वह अतुलित, सर्वोत्कृष्ट बल और पराक्रम को प्राप्त करता है, महाशक्ति को धारण करता है, चिरायु होता है, तेजस्वी होता है और उसका शरीर सभी रोग व्याधियों से रहित होता है। 4. आहारदान - चतुर्विध संघ को चारों प्रकार के आहारों का यथायोग्य दान देना आहारदान कहलाता है। इसमें आचार्य कहते हैं कि - आहारदान के फल को कोई नहीं कह सकता, क्योंकि आहारदान देने से अपने मन की इच्छानुसार समस्त उत्तम भोगों की प्राप्ति होती है। भा. सं. गा. 490 भा. सं. गा. 491 व. श्रा. 236 भा. सं. गा. 492 325 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org