________________ मोक्षप्राप्ति संभव नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिक तथ्यों या सिद्धान्तों के विषय में मात्र विचार करने से मोक्षप्राप्ति संभव नहीं है। अतः अब यहाँ आचार्य देवसेन की कृतियों में निहित साधनापरक दृष्टि को द्योतित किया जा रहा है। दान का स्वरूप एवं भेद महान् पुण्य के आस्रवों के कारणों में जो मुख्य है, ऐसे दान के स्वरूप को बताते हुए आचार्य उमास्वामी महाराज कहते हैं कि - 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।' अर्थात् अपना और दूसरों का उपकार करने के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान कहलाता है। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्रस्वामी भी दान स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि - सात गुणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा गृहसम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का नवधाभक्तिपूर्वक जो आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है, वह दान कहा जाता है। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - जिसकी वंश परम्परा शुद्ध हो, उसे कुलशुद्ध कहते हैं, जिसका आचरण शुद्ध हो उसे आचारशुद्ध कहते हैं और जिसने स्नानादि कर शुद्ध वस्त्र धारण किये हैं, अंग-भंग नहीं है तथा जिसके शरीर में राध-रुधिरादि को झराने वाली कोई बीमारी नहीं है वह शरीर शुद्ध कहलाता है। जीवघात के स्थान को सूना कहते हैं। सूना 5 प्रकार के हैं। खण्डनी - उखली से कूटना, प्रेषणी - चक्की से पीसना, चुल्ली - चूल्हा जलाना, उदकुम्भ - पानी के घट भरना और प्रमार्जनी - बहारी से भमि बहारना ये पाँच हिंसा के कार्य गृहस्थ के होते हैं। खेती आदि व्यापारसम्बन्धी कार्य आरम्भ कहलाते हैं। इनसे जो रहित हैं ऐसे मुनिराजों का आहारादि से जो गौरव या आदर किया जाता है वह दान कहलाता है। 'त. सू. 7/38, सो. उपा. 766 र. क. श्रा. 113 323 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org