________________ आचार्य पूज्यपादस्वामी और अकलंकस्वामी भी लिखते हैं कि दूसरे का उपकार हो इस बद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है। दान का ही स्वरूप बताते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिये अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है। आचार्य देवसेन स्वामी ने विशेष पुण्य की प्राप्ति में दान को मुख्यता से प्ररूपित किया है, परन्तु उसका सामान्य लक्षण न कहकर उनके भेदों के स्वरूप का विशेष विवेचन किया है। दान का लक्षण कहते हुए आचार्य लिखते हैं कि अपने और पर के उपकार के लिये अपने द्रव्य से उत्पन्न अन्न-पानादि का सत्पात्रों में त्याग करना दान है।' इस प्रकार अपने और दूसरे के उपकार के लिये जो धन का त्याग किया जाता है वह दान है, ये लक्षण सभी आचार्यों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है। दान से दाता के जो पुण्य का संचय होता है, यह हुआ स्व का अनुग्रह, साथ ही उसके माध्यम से पात्र के जो सम्यग्ज्ञानादि की अभिवृद्धि होती है, इसे उससे पर का उपकार भी जानना चाहिये। दान के भेद दान के भेदों का वर्णन सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र स्वामी के द्वारा किया गया। उन्होंने दान के चार भेद किये हैं - आहारदान, औषधदान, उपकरणदान और आवास अर्थात् वसतिका अथवा अभयदान। आचार्य देवसेन स्वामी ने भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी का अनुसरण करते हुए चार ही दान स्वीकार किये हैं। भेदों की संख्या चार ही है बस नामों में जरा से भेद हैं। आचार्य देवसेन स्वामी ने आवास के स्थान पर अभयदान का प्रयोग किया है और उपकरणदान के स्थान पर शास्त्रदान का प्रयोग किया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी महान् दार्शनिक थे अतएव वे व्यापक शब्दों का प्रयोग किया करते थे। स. सि. 6/12, रा. वा. 6/12/4 ध. 13/5,12 त. भा. 7/33, त. सा. 4/99 __ कार्तिकेया. गा. 362, र. क. श्रा. 117, ज. प. 2/148, व. श्रा. 233, पं. वि. 2/50, रत्नमाला 31 भा. सं. गा. 489 324 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org