________________ अथवा करूँगा, वस्त्र-आभूषण कितने बार बदलँगा. कितनी बार वाहन का उपयोग करूंगा इत्यादि अपने योग्य घड़ी, मुहर्त, पहर, दिन और रात्रि आदि काल की मर्यादा पूर्वक त्याग करके नियम पालन कर सकते हैं। भोगोपभोगपरिमाण व्रत को कुछ आचार्यों ने शिक्षाव्रत में ग्रहण किया है। इसके अतिचारों के सन्दर्भ में आचार्य उमास्वामी और आचार्य समन्तभद्रस्वामी में अन्तर है। दोनों के बताये गये अतिचारों में भिन्नता है। आचार्य उमास्वामी के अनुसार सचित्त-आहार, सचित्त-सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषव (अधपका) और दुःपक्वाहार, ये पाँच निरूपित किये गये हैं।' आचार्य समन्तभद्र स्वामी के अनुसार पञ्चेन्द्रिय विषयों में रागभाव का कम नहीं होना, पूर्व में भोगे भोगों का बार-बार स्मरण करना, भोगों में अत्यधिक आसक्ति, विषय भोगों के लिये आगामी काल में अति लम्पटता और न भोगते हुए भी भोगने का विचार करना, ये पाँच अतिचार हैं। इन अतिचारों का त्याग करने से व्रत शुद्ध किया जा सकता है। इस व्रत के पालन करने से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, रागभाव अतिमन्द हो जाता है, व्यवहार और परमार्थ दोनों उज्ज्वल हो जाते हैं। विरुद्ध भोगों का त्याग तो होना ही चाहिये और उपयुक्त पदार्थों में से भी अपनी शक्ति, देश, काल का विचार करके त्याग करना चाहिये। शिक्षाव्रत - जो व्रत शिक्षा अर्थात् अभ्यास के लिये होते हैं अर्थात् जो मुनिव्रत का पालन करने की शिक्षा देते हैं उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। अथवा शिक्षा प्रधान व्रत को शिक्षाव्रत कहते हैं। इनको विशिष्ट श्रृतज्ञान रूप भावना से परिणत साधक ही पालन करते हैं। शिक्षाव्रत के चार भेद हैं और कई आचार्यों ने भिन्न-भिन्न भेद प्ररूपित किये हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास ये दो शिक्षाव्रत तो सभी आचार्यों ने स्वीकार किये हैं और अतिथिसंविभाग व्रत भी लगभग सभी आचार्यों ने स्वीकृत किया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अतिथिसंविभाग के स्थान पर वैयावृत्य को ग्रहण किया है। अतिथिसंविभाग त. सू. 7/35 र. श्रा. 90 2 302 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org