________________ स्वरूप का चिन्तन और आत्मस्वरूप में ही विचारों का केन्द्रित होना होगा, समाधि उतनी ही निर्दोष होगी। मरण प्रकृति का शाश्वत नियम है। मरण के स्वरूप की जानकारी होने से मरण के समय होने वाली आकुलता से बचा जा सकता है। मोह के कारण जीव मरण के नाम से ही भयभीत रहता है। अतः ज्ञानी जीव मरण भय से रहित होता है। आचार्य वीरसेन स्वामी आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण मानते हैं।' . आचार्य शिवार्य मरण के 17 भेद करते हैं और उनमें से जो मुख्य पाँच मरण हैं, उनको पृथक् ग्रहण करके वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि - मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्थंकरहिं जिणवयणे। तत्थवि य पंच इह संगहेण मरणाणि बोच्छामि॥ अर्थात् तीर्थङ्कर देव ने परमागम में सत्रह प्रकार के मरण का उपदेश दिया है, उनमें से प्रयोजनभूत पाँच प्रकार के मरण को आगे कहँगा। वे मरण के सत्रह भेद इस प्रकार हैं - 1. आवीचि मरण - आयुकर्म का उदय प्रति समय होता है, अतः प्रत्येक अनन्तर समय में मरण भी होता है। इसी प्रतिसमय होने वाले मरण को आवीचि मरण कहते हैं। 2. तद्भव मरण - वर्तमान पर्याय का अभाव होना तद्भव मरण है। अवधिमरण - वर्तमान पर्याय में जैसा मरण प्राप्त करता है वैसा ही मरण आगामी पर्याय में भी होगा उसे अवधिमरण कहते हैं। इसके दो भेद हैं - वर्तमान में जो आयु जैसे प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग को लेकर उदय में आ रही है, वैसी ही पुनः आयुबन्ध करता है और भविष्य में उसका उदय होता है तो उसे सर्वावधि मरण कहते हैं तथा वर्तमान में जैसा आयु का उदय होता है. वैसा ही यदि एकदेश बन्ध होता है तो वह देशावधिमरण कहलाता है। धवला पु. 1 पृ. 33 भगवती आराधना गा. 25 313 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org