________________ के चारों पर्यों में अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिये। उत्कृष्ट प्रोषधोपवास में सप्तमी अथवा त्रयोदशी के दिन पूजन-वन्दन के पश्चात् सत्पात्र को आहारदान देकर भोजन करे और जिनेन्द्र भगवान् अथवा गुरु के समक्ष जाकर आगामी दिवस के लिये चारों प्रकार के आहारों का त्याग करके उपवास धारण करे। शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक आदि यथोचित करे। तत्पश्चात् अष्टमी/चतुर्दशी को वही पूजन-भक्ति आदि में लीन रहकर नवमी/पूर्णिमा अथवा अमावस्या को दैनिक कर्म के पश्चात् सत्पात्रों को दान देकर ही भोजन करता है, यही उत्कृट प्रोषधोपवास कहा गया है। यह सोलह पहर का बताया गया है। मध्यम प्रोषधोपवास की विधि भी उत्कृष्ट के समान होती है, परन्तु उत्कृष्ट में जहाँ चारों प्रकार के आहारों का त्याग बताया है वहीं मध्यम में आचार्य वसुनन्दि ने जल को छोड़कर शेष का त्याग करना कहा है। यहाँ एक प्रकार के त्याग रूप उपवास नहीं है। अतः इसे मध्यम उपवास की संज्ञा दी गई है। मध्यम उपवास में साधक गृहारम्भ आदि की क्रियायें कर सकता है, किन्तु शेष कार्य उत्कृष्ट के अनुसार हैं। अष्टमी अथवा चतुर्दशी के दिन छहों रसों में से खट्टा रस के अलावा शेष रसों का त्याग करके नींबू-इमली आदि रसों से भोजन पकाकर अथवा सूखी रोटी आदि को खाना आचाम्ल कहा गया है और एकाशन अर्थात् एक समय भोजन दैनिक कर्म के पश्चात् सत्पात्र को आहार देकर करता है, वह. जघन्य प्रोषधोपवास कहा गया है। उपवास के दिन क्या करना चाहिये, उसे बताते हुए आचार्य कहते हैं कि पाँचों पापों का त्याग, पञ्चेन्द्रिय विषयों का त्याग, आरम्भ का त्याग एवं आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर शेष परिग्रह का त्याग करना, शरीर संस्कार आदि का त्याग करना चाहिये। प्रोषधोपवास व्रत के अतिचारों का वर्णन करते हैं - बिना देखे, बिना शोधे उपकरणों का प्रयोग करना, बिना देखे, बिना शोधे उपकरणों को रखना, बिना देखे, बिना शोधे चटाई-बिस्तर आदि बिछाना, उपवास करने में उत्साह नहीं रहना और उपवास के दिन आवश्यक क्रियाओं को भूल जाना। इन अतिचारों से बचकर साधक प्रोषधोपवास की उत्कृष्ट विधि का पालन कर सकता है। उपवास को उत्साहपूर्वक करता है और व. श्रा. गा. 280 त. सू. 7/34, र. श्रा. 110 305 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org