________________ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, त्याग और संयम आदि गुणों के द्वारा चिरकाल तक आत्मा को भावित करने के बाद आय के अन्त में अनशनादि विशेष तपों के द्वारा शरीर को और श्रुतरूपी अमृत के आधार पर कषायों को कृश करना ही सल्लेखना है। जिस प्रकार मूल (जड़) से उखाड़ा हुआ विषवृक्ष ही प्रयोजन की सिद्धि करता है, मात्र शाखाओं, डालियों एवं पत्रों आदि का काटना नहीं, उसी प्रकार कषायों की कृशता के साथ की हुई काय की कृशता ही प्रयोजन की संरक्षिका है, मात्र काय की कृशता नहीं। सल्लेखना क्यों धारण करना चाहिये तो इसको स्पष्ट करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं कि मरण किसी को इष्ट नहीं है। जैसे रत्नों के व्यापारी को अपना घर नष्ट होमा कदापि इष्ट नहीं है, तथापि उसके नष्ट होने के कारण उपस्थित हो जायें और रक्षा का कोई भी उपाय न चले तब वह घर में रखे हुए बहुमूल्य रत्न आदि को निकालकर घर अपनी आँखों के सामने नष्ट होते देखता है, वैसे ही श्रावक और साधु व्रतशीलादि गुणों का पालन करते हैं और उसके लिये शरीर की आहारौषधि आदि से रक्षा करते हैं। यदि शरीर में असाध्य रोगादि उपस्थित हो जायें तो सल्लेखना के द्वारा अपने आत्मगुणों की रक्षा करते हैं और शरीर को नष्ट होने देते हैं।' सल्लेखना धारण करने के कारणों का वर्णन समन्तभद्र आदि अनेक आचार्यों ने किया है। आचार्य सकलकीर्ति कहते हैं - इन्द्रियों की शक्ति मन्द होने पर, अतिवृद्धता, (देव, मानव, तिर्यञ्च अथवा आकस्मिक) उपसर्ग एवं व्रतक्षय के कारण उपस्थित होने पर, महान् दुर्भिक्ष पड़ने पर, असाध्य और तीव्र रोग आ जाने पर, शरीर का बल क्षीण हो जाने पर, धर्म्यध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि करने की शक्ति क्षीण हो जाने पर बुद्धिमानों को चाहिये कि आत्मकल्याण की प्राप्ति के लिये समाधिमरण ग्रहण करें। इन्हीं सब कारणों में मूलाराधना में 'भविष्य में समाधि कराने वाले निर्यापकाचार्य नहीं मिलेंगे' ऐसा अन्य कारण मिलता है। स. सि. 7/22 समाधिमरणोत्साह दीपक श्लो. 17-18 309 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org