________________ आलस्यरहित होकर ज्ञान और ध्यान में लीन रहता है, वही इसका उचित फल प्राप्त कर सकता है। 3. अतिथि संविभाग व्रत - सम्यग्दर्शनादि गुणों से सम्पन्न, समस्त परिग्रह से रहित साधुसंघ (चतुर्विध) को अपने और उनके धर्मपालन के लिये बिना किसी अपेक्षा के विधि एवं भक्ति पूर्वक दान देना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। साधुसंघ को दान देने में विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से इस व्रत में भी विशेषता होती है। अब्रिथिसंविभाग के स्थान पर आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने वैयावृत्य रूप व्यापक शब्द का प्रयोग किया है। वैयावृत्य भी अनपेक्षित अर्थात् किसी भी अपेक्षा अथवा स्वार्थ रहित है और इसमें साधुसंघ की किसी भी आवश्यकता को उत्साहपूर्वक पूर्ण किया जाता है। यहाँ सिर्फ अतिथिसंविभाग के विषय में नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान देकर पश्चात् स्वयं भोजन करता है। इसमें श्रावक प्रतिदिन अतिथि (साधुसंघ) को आहार देकर ही भोजन करता है, प्रत्येक दिन पड़गाहन करने के लिये अपने घर के बाहर प्रतीक्षा अवश्य करता अतिथि संविभाग व्रत के भी पाँच अतिचार हैं - व्रतियों को दिये जाने योग्य आहार को हरे पत्ते आदि से ढंकना, हरे-पत्र आदि पर रखा हुआ भोजनादि दान देना, दान देने में अनादर भाव रखना अर्थात् उत्साह का नहीं होना, देने योग्य पदार्थ अथवा देने की विधि का भूल जाना अथवा पड़गाहन करना ही भूल जाना और अन्य दातार से ईर्ष्या भाव रखना, ये पाँच अतिचार है।' इसमें से आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रणीत अतिचारों में भिन्नता है, उनके द्वारा वर्णित दो अतिचार दूसरे के द्रव्य को देना और उचितकाल को छोड़कर अन्य काल में आहार देना, ये पृथक् हैं, शेष समान हैं। अतिथि संविभाग व्रत के पालन करने से जो गुणवान् रत्नत्रय से संयुक्त मुनिराज हैं, उनके स्वरूप को देखकर उनके गुणों को प्राप्त करने की भावना उत्पन्न होती है। इसलिये इस व्रत के पालन करने से मुनिव्रतों को पालन करने की शिक्षा मिलती है। श्रावक आगामी समय में जिस पद को प्राप्त करना चाहता है उसको अधिक समीप से र. श्रा. 121, त. स. 7/36 306 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org