________________ शराब पीने का त्याग करना, जीवों के शरीर के मांस खाने का त्याग और मधमक्खियों के छाते में से निकलने वाले तरल पदार्थ अर्थात शहद जो असंख्य जीवों का निवास होता है, उसको खाने का त्याग करना एवं पाँच उदुम्बर फल (पीपल, बड़, गूलर (ऊमर), पाकर फल और अंजीर फल इन) का त्याग करना अष्टमूलगुण कहा गया है। जिस प्रकार साधु के 28 मूलगुणों में से एक भी मूलगुण में हीनता आती है तो उनका साधुत्व स्थिरता को प्राप्त नहीं हो पाता उसी प्रकार श्रावक के भी 8 मूलगुणों में से एक भी मूलगुण में हीनता आती है तो वह भी श्रावकत्व की संज्ञा में स्थिर नहीं रह पाता है। / हा .. श्रावकों के प्रथम स्थान में अष्टमूलगुण का पालन और सप्तव्यसन का त्याग प्रधानतया होता है। द्वितीय स्थान व्रतों के पालन का आता है। व्रतों को पालते हुए यह श्रावक द्वितीय व्रत प्रतिमा को अङ्गीकार कर लेता है। सर्वप्रथम व्रत का स्वरूप आचार्य उमास्वामी ने उल्लिखित किया है - 'हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरति अर्थात् विरक्त, रहित होना व्रत कहलाता है। यहाँ यह आशय है कि पाँचों पापों के त्याग रूप भाव को व्रत कहते हैं। इसी प्रकार व्रत का स्वरूप बताते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं - 'किं कर्त्तव्यं किं न कर्त्तव्यमिति व्रतम्'। व्रत के भेद - व्रतों के भेद सभी आचार्यों ने समान रूप से बारह ही प्ररूपित किये है - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। अणुव्रत - महाव्रत की अपेक्षा लघु होने से अहिंसादि व्रतों को अणुव्रत कहते हैं। महाव्रत में हिंसादि पाँचों पापों का सर्वदेश त्याग होता है और जिसमें हिंसादि पापों का एकदेश त्याग होता है वह अणुव्रत कहलाता है। सामान्य से अणुव्रत के 5 भेद सभी आचार्यों ने स्वीकार किये हैं, परन्तु चारित्रसार में चामुण्डरायजी ने रात्रिभुक्ति त्याग को षष्ठ अणुव्रत कहा है त. सू. 7/1 293 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org