________________ करके उनका नाश किया जाता है और चतुर्थ शक्ल ध्यान में समस्त कर्मों का नाश करके यह जीव एक ही समय में सिद्धावस्था प्राप्त करके सिद्धालय में विराजमान हो जाता है। शुक्ल ध्यान को प्राप्त करके सिद्धावस्था में लीन होना ही साधक का अन्तिम लक्ष्य होता है। ध्यान का फल , आर्त्तध्यान के फल को प्ररूपित करते हुए कहा है कि यह ध्यान अनन्त दु:खों से व्याप्त तिर्यञ्चगति का कारण होता है। इस ध्यान के आश्रय से प्रथम तो सन्देह उत्पन्न होता है उससे शोक, भय, प्रमाद, अनवधानता और विवाद होता है। चित्तभ्रम बढ़ता है, विषयं के सेवन में उत्कण्ठा होती है। निरन्तर निद्रालुता, अंगों की जड़ता होती है। खेद और मूर्छा आदि आर्त्तध्यान के चिह्न हैं। अतः यह ध्यान हेय है।' रौद्रध्यान भी पापरूपी वन का बीज है। अनन्त दु:ख का कारण है और दुर्गति को प्राप्त कराने वाला है। यह ध्यान नरकगति का कारण होता है। अत: यह ध्यान भी हेय है। धर्म्यध्यान के फल से यह जीव परिग्रह को छोड़कर शरीर त्याग करते हैं तो उनको स्वर्ग एवं ग्रैवेयकादि प्राप्त होते हैं। यह संवर-निर्जरा का कारण तथा परम्परा से मोक्ष का कारण है। शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है। इस ध्यान में ही चित्त का निरोध पूर्ण होता है। शुक्ल ध्यान के द्वारा ही चित्त की सभी वृत्तियाँ शान्त होती हैं, कर्म का क्षय होता है और अपने आत्मस्वरूप में लीन होता है। शुक्लध्यान ध्यान की सर्वोच्च कोटि है। इससे साधक : अपने लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करके आत्मसुख में लीन होता है और सदैव अनन्त सुख में मग्न रहता है। ज्ञाना. 25/43 291 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org