________________ 4. व्युपरतक्रिया (समुच्छिन्न क्रिया) निवृत्ति शुक्ल ध्यान - तृतीय शुक्ल ध्यान के अनन्तर केवलियों के समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान होता है। इस अवस्था में कोई भी योग नहीं होने के कारण आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन की क्रिया का उच्छेद रहता है। यह ध्यान 14वें गुणस्थान में होता है। 14वें गुणस्थान का समय अ इ उ ऋ ल इन लघु पंचाक्षरों में उच्चारण काल प्रमाण होता है। इस ध्यान से उपान्त्य समय में 72 प्रकृतियों का और अन्तिम समय में 13 प्रकृतियों का क्षय होता है और केवली भगवान् मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं। - शुक्ल ध्यान की विशेषता बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - शक्ल ध्यान के चार भेदों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक आस्रव सहित और दूसरा आस्रव रहित। प्रथम तीन शुक्ल ध्यान आस्रव सहित होते हैं, क्योंकि इनमें कर्मों का आस्रव होता रहता है और चौथा शुक्ल ध्यान निराम्रव होता है, उसमें किसी भी प्रकार का कर्मास्रव नहीं होता है। आचार्य शुभचन्द्र महाराज का कथन है कि - आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुण्यचेष्टितः। चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति॥' अर्थात् वज्रवृषभनाराच संहनन से सम्पन्न बारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता मुनिराज के ही शुक्लध्यान की योग्यता होती है। प्रथम दो ध्यान छद्मस्थों के होते हैं, ये श्रुत के धारक होते हैं। उनमें श्रुतज्ञानपूर्वक पदार्थों का आलम्बन होता है। अन्त के दो शुक्लध्यान मात्र केविलयों के ही होते हैं। ये दोनों सभी प्रकार के आलम्बन से रहित होते हैं। इसमें यह विशेषता है कि स्त्रियों के शुक्ल ध्यान नहीं होता है, क्योंकि उनका चित्त स्वभाव से ही चञ्चल होता है। प्रथम शुक्ल ध्यान के फल से संवर और निर्जरा तथा अपार सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। द्वितीय शुक्ल ध्यान के फल से तीन घातिया कर्मों का नाश होता है। तृतीय शुक्ल ध्यान में मन, वचन, काय योगों का निरोध 1 भा. सं. गा. 686 ज्ञानार्णव 42/5 290 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org