________________ केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं। उनके साथ-साथ अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की भी उपलब्धि होती है। इस प्रकार वे अनन्त चतुष्टय रूप अनपमेय सम्पदा से सहित हो जाते हैं। यह एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान 12वें गुणस्थान भीण मोह में होता है। यह अवस्था क्षायोपशमिक भाव से सहित होती है। इस ध्यान में तीनों योगों में से कोई सा भी एक योग होता है। इन दोनों ध्यानों को छद्मस्थ श्रुतकेवली ही प्राप्त कर सकते हैं।' अर्थात् पूर्व के धारी मुनिराज के ही सम्भव है। 3. सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती शुक्ल ध्यान - तृतीय और चतुर्थ शुक्ल ध्यान मात्र केवली भगवान् के ही होते हैं, ऐसा आचार्य उमास्वामी ने स्पष्ट रूप से निर्देशित किया है। केवलज्ञानसूर्य के द्वारा पदार्थों को प्रकाशित करते हुए सर्वज्ञ भगवान् की आयु जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रह जाती है तब यह तृतीय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती शुक्ल ध्यान होता है। इस ध्यान के नाम से ही इसकी कार्यप्रणाली का ज्ञान हो जाता है। यह ध्यान काय योग को सूक्ष्म कर देता है, अप्रतिपाती अवस्था में अथवा ध्यान में प्रवेश करके पुनः प्रवर्तन क्रिया नहीं होती है। अत: यह सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती शुक्ल ध्यान कहा जाता जब अरिहन्त केवली भगवान् के आयु कर्म की स्थिति से ज्यादा स्थिति वेदनीय, नाम, गोत्र कर्मों की रहती है तब केवली समुद्घात के द्वारा तीनों कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर कर लेते हैं। जिन मुनियों को छह महीने की आयु शेष रहने पर केवल ज्ञान होता है उनको समुद्घात अवश्य करना पड़ता है, अन्य के लिये कोई नियम नहीं है, हो भी सकता है नहीं भी। इसके उपरान्त केवली भगवान् काययोग में स्थिर होकर बादरवचनयोग और बादर मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं, इसके बाद सूक्ष्मवचन मनोयोग में स्थिर होकर बादर काययोग को सूक्ष्म कर देते हैं, पुनः सूक्ष्म काय में स्थिरता प्राप्त करके सूक्ष्म वचन मनोयोग का निग्रह कर देते हैं। तब यह जीव इस ध्यान को करने के योग्य होता है। सूक्ष्म काय योग में स्थिर होकर इस ध्यान के द्वारा योग निरोध करते हैं। 13वें गुणस्थान में मात्र अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में बस यही ध्यान होता है और कोई ध्यान नहीं होता है। त. सू. 9/37 ___ भा. सं. गा. 677 289 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal Private Use Only