________________ ब्रह्मचर्याणुव्रत के पालन करने में पाँच प्रकार के अतिचारों का परिहार करना परम आवश्यक है। वे हैं - 'दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करवाना, स्वामी सहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, स्वामी रहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, अनंगक्रीडा अर्थात् कामसेवन के अंगों के अलावा अन्य अंगों से क्रीडा करना और कामसेवन के प्रति तीव्रता, इन पाँचों अतिचारों का त्याग अवश्य करना चाहिये। 5. परिग्रहपरिमाणाणुव्रत - परिग्रह का परिणाम कर लेना पञ्चम अणुव्रत कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं - जितने से अपने परिणामों में सन्तोष भाव आ जाये उतना धन-धान्य, हिरण्य-सुवर्ण, दासी-दास, क्षेत्र-वास्तु और वस्त्र-वर्तन आदि परिग्रह का परिमाण करके उससे अधिक में वांछा नहीं करना परिग्रहपरिमाण नामक पंचम अणुव्रत है। इसी का अपर नाम इच्छा परिमाण व्रत भी है।' किसी के पास यदि वर्तमान में परिग्रह थोड़ा है, परन्तु अभिलाषा अधिक है, चाह अधिक है तो वह महान् परिग्रही कहलाता है, क्योंकि 'मूर्छा परिग्रहः' मूर्छा अर्थात् ममत्व परिणाम को परिग्रह आचार्य उमास्वामी ने कहा है। परिग्रह समस्त पापों का मूल है और इसी से दुर्ध्यान होता है। नौ नोकषाय, चार कषाय और मिथ्यात्व ये 14 अन्तरंग परिग्रह हैं। दस प्रकार के बहिरंग परिग्रहों का वर्णन ऊपर कर दिया है। बाह्य परिग्रह अन्तरंग के निमित्त होते हैं, इनके कारण ही ममत्व परिणाम उत्पन्न होता है और जीव को अचेत बना देता है। इन्हीं भावों को आचार्य अमृतचन्द्र, वसुनन्दि, सोमदेव, पं. आशाधर जी एवं पं. दौलतराम जी आदि ने भी पुष्ट किया है। देशव्रती श्रावक किसी भी वस्तु का सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता तो उसे प्रत्येक वस्तु की मर्यादा अवश्य करना चाहिये। मर्यादा होने से ममत्व भाव में न्यूनता आती है, जिससे व्रत निर्दोष पालन होते हैं और कर्मबन्ध भी अत्यल्प होगा। इस व्रत के त. सू. 7/28 2 र. श्रा. 61 298 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org