________________ तितोय परिच्छेद : श्रावक के अष्ट मूलगुण और बारह व्रत ___ मूल जड़ को कहते हैं, जो गुण मूल रूप से पालन किये जाते हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष की स्थिति नहीं रह सकती उसी प्रकार मूलगुण के बिना श्रावकत्व की स्थिति रहना संभव नहीं है। अतः पञ्चपरमेष्ठियों के भी मूलगुण आचार्यों, भगवन्तों ने प्ररूपित किये हैं, वैसे ही श्रावक के भी मूलगुण प्ररूपित किये गये हैं। अरिहन्त के 46, सिद्ध के 8, आचार्य के 36, उपाध्याय के 25 और साधु परमेष्ठी के 28 -मूलगुण हैं, तो श्रावकों के भी 8 मूलगुणों का निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम श्रावक के मूलगुणों का वर्णन आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में किया है मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम्। अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः॥'. श्रमणों में उत्तम जिनेन्द्र भगवान् मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों को गृहस्थों के आठ मूलगुण कहते हैं। कुछ आचार्यों ने इन्हीं मूलगुणों का अनुसरण किया फिर कालप्रभाव से मूलगुणों में परिवर्तन आने प्रारम्भ हो गये और फिर अष्टमूलगुणों में मद्य, मांस और मधुत्याग तो यथावत् रहे परन्तु पाँच अणुव्रतों का स्थान पाँच उदुम्बर फल त्याग ने ले लिया। उसके पश्चात् सभी ने इन्हीं अष्टमूलगुणों की अनुमोदना की। इन्हीं आठों मूलगुणों की अनुमोदना करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं - महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उयंवराण पंचण्ह। अद्वंदे मूलगुणा हवंति फुडु देश विरयम्मि।' अर्थात् मद्य, मांस, मधु का त्याग और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, ये देशविरतियों के आठ मूलगुण कहलाते हैं। 1. र. श्रा. श्लो. 66 भावसंग्रह गा. 356 292 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org