________________ इसी प्रकार का मिलता जुलता स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने भी वर्णित किया है - जो रत्नत्रय से युक्त है, निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है, वह आत्मा मुनीश्वरों में प्रधान उपाध्याय परमेष्ठी कहलाता है।' उपाध्याय परमेष्ठी के 25 मूलगुण होते हैं, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व। इनका विशेष व्याख्यान पहले कर आये हैं। साधु परमेष्ठी - अन्त में साधु परमेष्ठी के स्वरूप को वर्णित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - उग्गतवतविय गत्तो तियाल जोएण गमिय अहरत्तो। साहिय मोक्खस्स पओ झाओ सो साहू परमेट्ठी॥ अर्थात् जो प्रतिदिन तीव्र/उग्र तप करते हैं, सदैव तीनों कालों अर्थात प्रातः, मध्याह्न और सायं काल में योग को धारण करते हैं। सर्व मोक्षमार्ग की साधना करते रहते हैं, ऐसे वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। उनका ध्यान निरन्तर करना चाहिये। ___ऐसे ही साधु परमेष्ठी के स्वरूप को नेमिचन्द्राचार्य ने वर्णन किया है जो दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण हैं, मोक्षमार्गभूत शुद्ध अर्थात् राग द्वेषादि से रहित चारित्र की हमेशा साधना करते हैं, इन गुणों से सहित जो है वे साधु परमेष्ठी हैं, जिनका सदैव ध्यान करना चाहिये। साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण होते हैं - 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रिय विजय, 6 आवश्यक और सात शेष गुण। इन 28 मूलगुणों का पालन साधु निरन्तर करते इस प्रकार पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप को अच्छी प्रकार से जानकर उनके स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये। एक तथ्य दृष्टव्य है कि पाँचों परमेष्ठी ध्येय अर्थात ध्यान करने योग्य हैं न कि हमारा लक्ष्य हैं। ये तो मात्र आलम्बन हैं, इनके आलम्बन से अपने स्वरूप की प्राप्ति करना ही हमारा लक्ष्य है। परमेष्ठी तो भवसागर पार लगाने में नैया के समान हैं, किनारे पर पहुँचकर इनका अवलम्बन भी छोड़ना होगा तभी हम उस बृ. द्र. सं. गा. 53 भा. सं. गा. 379 बृ. द्र. सं. गा. 54 284 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org