________________ जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है। छमस्थ के एक वस्तु में चित्त का एकाग्रतात्मक ध्यान अन्तर्मुहूर्त मात्र का होता है। फिर वह ध्यान धारा भिन्न पर्याय में परिवर्तित हो जाती है। केवली के योग निरोधात्मक ध्यान होता है। उत्तराध्ययन आगम ग्रन्थ में लिखते हैं कि - एगागमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोह करेइ। अर्थात् एकाग्रमन के सन्निवेश से जीव चित्त का निरोध करता है। सुसमाहित मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। बुधजन उसे ध्यान कहते हैं। आवश्यक नियुक्ति में वर्णित किया गया है कि - आलम्बन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न तथा निष्प्रकम्प चित्त ध्यान है। आलम्बन में मृदु भावना से संलग्न अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता है। ध्याता ध्यान को करने वाला कौन पात्र होता है? अर्थात् वह ध्यान किसके होता है, उसको वर्णित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं कि - नष्ट किया है मोह रूपी मल्ल जिसने ऐसा जो आत्मा विषय से विरक्त होता हुआ, मन का निरोध करके स्वभाव में समवस्थित है वह आत्मा को ध्याने वाला है।' इसी विषय को आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी अन्य प्रकार से भी कहते हैं - वास्तविक पदार्थ को सामान्य रूप से देखने और विशेषता सहित ज्ञान करने से सकल अन्य पदार्थों की चिन्ता का अवरोध / निरोध रूप ध्यान कर्म के स्थिति बन्ध की क्रमिक परम्परा से झड़ने का कारण होता है। आत्मतत्त्व में लीन होने से आत्मस्वभाव से सहित हो चुका है साधु ऐसे महामुनि के यह ध्यान होता है। यह ध्यान परपदार्थ के सम्बन्ध से अत्यन्त रहित है। ध्यानशतक 23. उत्तराध्ययन 29/26 प्रवचनसार गा. 196 पञ्चास्तिकाय गा. 152 245 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org