________________ अर्थात् पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना (वायु), वारुणी (जल) और तत्त्वरूपवती ये यथाक्रम से पाँच धारणायें कही गयी हैं। इन पाँचों धारणाओं के द्वारा उत्तरोत्तर आत्मा की ओर केन्द्रित होते हुए ध्यान किया जाता है। योगशास्त्रों में भी इन पाँचों धारणाओं का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु तत्त्वानुशासन में इन पाँच धारणाओं में से तीन मारुती, तेजसी और वारुणी ही प्राप्त होती (i) पार्थिवी धारणा - इस धारणा के माध्यम से साधक मध्यलोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त जो तिर्यक् लोक है, उसके समान शब्द रहित, तरंग रहित तथा हार और बर्फ के समान सफेद स्वच्छ क्षीर समुद्र का ध्यान अथवा चिन्तन किया जाता है। उस क्षीर समुद्र के एकदम मध्य अर्थात् बीचों-बीच रमणीय है रचना जिसकी और जिसकी कोई सीमा नहीं है ऐसे असीमित प्रस्फुटित होते हुए शोभायमान, तपे हुए स्वर्ण की जैसी प्रभा/कान्ति से सम्पन्न एक हजार दल वाले कमल का चिन्तन करना चाहिये। फिर इस सहस्रदल वाले कमल को ऐसा ध्यावो कि कमल के राग से उत्पन्न हुए केसरों की पंक्ति से शोभायमान तथा चित्त रूपी भ्रमर को रंजायमान करने वाले जम्बूद्वीप के बराबर एक लाख योजन का चिन्तन करे। तत्पश्चात् उस कमल के मध्य मेरु के समान शोभायमान है और पीले रंग की किरणों का समूह है जिसमें और जिसके द्वारा पीले रंग में की गई हैं दशों दिशायें, ऐसी एक-एक कर्णिका का ध्यान करें। उनमें से दैदीप्यमान प्रभा से युक्त मेरुपर्वत के समान एक उच्चकर्णिका है, उसके ऊपर एक सिंहासन है, उच्च सिंहासन पर बैठकर ऐसा विचार करे कि राग-द्वेषादिक समस्त कर्मों को क्षय करने में समर्थ है और संसार में उत्पन्न हुए जो कर्म हैं, उनकी सन्तति को नाश करने में उद्यमी है। इस प्रकार इस धारणा से विशाल पदार्थों का अच्छी प्रकार से धारण करके लघु और सूक्ष्म वस्तुओं में समस्त चिन्तन अवरुद्ध करके ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसको ही आचार्यों ने पार्थिवी धारणा कहा है। तत्त्वानु. 183 ज्ञाना. 37/4-9 261 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org