________________ सिद्धक्षेत्र को ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार निज देह में लोक स्थिति का ध्यान करना भी पिण्डस्थ ध्यान जानना चाहिये।' 2. पदस्थ ध्यान - इसका स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पञ्च परमेष्ठी वाचक पवित्र मंत्र पदों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिये। इसी सन्दर्भ में आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - पञ्च परमेष्ठी के वाचक एक पद के मंत्र का जप करना अथवा अक्षर मंत्र का जप करना अथवा अधिक अक्षरों के मंत्र का जप करना भी पदस्थ ध्यान कहलाता है और यह पदस्थ .ध्यान कर्मों के नाश करने का साधन है। इसी के स्वरूप को आचार्य शुभचन्द्र महाराज लिखते हैं कि - योगीश्वर जिन पवित्र मंत्रों को अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिन्तन करते हैं, उसको अनेक नयों के पार पहँचने वाले योगीश्वरों ने पदस्थ ध्यान कहा है। यहाँ आचार्य अपना आशय प्रकट करते हुए कहते हैं - पदस्थ ध्यान का अभिप्राय है पदों में अर्थात् अक्षरों में ध्यान। इस ध्यान का सबसे प्रमुख आधार शब्द है, जो कि अकारादि स्वर और ककारादि व्यञ्जन वर्ण, शब्दों की रचना में कारण होते हैं। यह ध्यान वर्ण-मातृका ध्यान भी कहा जाता है। अक्षर ध्यान के द्वारा शरीर के तीन भाग-नाभिपद्म, हृदयपद्म और मुखपद्म (कमल) की स्थापना की जाती है। नाभिकमल पर सोलह दल का कमल स्थापित करके उसमें अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल, ए, ऐ, ओ. औ. अं. अः इन सोलह स्वर वर्णों का ध्यान किया जाना चाहिये। हृदयकमल में कर्णिका पत्र से सहित चौबीस दल वाला कमल संस्थापित करके उस पर क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म इस प्रकार इन पच्चीस वर्गों का ध्यान करना चाहिये। आठ पत्रों से सुशोभित मुखकमल के ऊपर परिक्रमानुसार विचार करते हुए एक-एक दल वसु. श्रा. गा. 460-463 वही गा. 464 भा. सं. गा. 627 ज्ञाना. 452 265 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org