________________ Hii) मारुती धारणा - इस धारणा में योगी (ध्यान करने वाले मुनि) आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महायोग वाले और महाबलवान् ऐसे वायुमण्डल का चिन्तन करें। इसका आशाय यह है कि उस पवन को इस प्रकार चिन्तन करें कि देवों की सेना को चलायमान करता हुआ, मेरु पर्वत को कंपाता हुआ, मेघों के समूह को बिखेरता हुआ, समद्र को क्षुभित करता हुआ तथा लोक के मध्य गमन करता हुआ, दशों दिशाओं में विचरण करता हुआ, संसार रूपी घर में फैलता हुआ समस्त पृथ्वीतल में प्रवेश करता हुआ चिन्तन करे। तत्पश्चात् ध्यानी मुनि ऐसा चिन्तन करे कि वह शरीर आदिक कर्मों की और कमल आदि की भस्म है, उसको उस महाप्रचण्ड वायुमंडल ने शीघ्र ही उड़ा दिया, फिर इस वायु को चिन्तन करके शान्त करना चाहिये।' इस प्रकार से आचार्यों ने मारुती धारणा का स्वरूप व्यक्त किया है। fiv) वारुणी धारणा - वह ही साधक इन्द्रधनुष, बिजली गर्जनादि चमत्कार सहित जलधरों के समूह से भरे हुए आकाश का चितवन करे। उन मेघों को अमृत से उत्पन्न हुए मोती के समान उज्ज्वल बड़े-बड़े बिन्दुओं से निरन्तर धारा के रूप में बरसते हुए आसमान को जो धीर, वीर मुनिराज हैं, वे स्मरण करें। फिर अर्द्धचन्द्राकार, मनोहर, अमृतमय जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुण मण्डल का चिन्तन करें। ऐसे चिन्तन करें कि अचिन्त्य है प्रभाव जिसका, ऐसे दैवीय ध्यान से उत्पन्न हुए जल से शरीर के जलने से समुत्पन्न हुए समस्त भस्म का प्रक्षालन करना चाहिये। इसी को आचार्यों ने वारुणी धारणा का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।' (v) तत्त्वरूपवती धारणा - इस ध्यान में संयमी साधक मुनि सप्त धातु रहित पूर्ण चन्द्रमा के समान है स्वच्छ, विमल, निर्मल कान्ति जिसकी ऐसे सर्वज्ञ के समान निज आत्मतत्त्व का चिन्तन करे। ऐसा कहने का आशय यह है कि निज आत्म तत्त्व को अतिशय-युक्त, सिंहासन पर आरूढ, कल्याण की महिमा सहित, देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित है ऐसा चिन्तन करे। फिर विलय को प्राप्त हो गये हैं आठों कर्म जिसके ऐसा प्रकटित होता हुए अत्यन्त निर्मल पुरुषाकार अपने शरीर में प्राप्त हुए अपनी आत्मा का चिन्तवन करे, इस प्रकार आचार्यों ने तत्त्वस्वरूपवती धारणा कही है। ज्ञाना. 37/20-23 ज्ञाना. 37/24-27 263 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org