________________ में य, र, ल, व, श, ष, स, ह इन आठ वर्गों का ध्यान करना चाहिये। ऐसे ही निरन्तर ध्यान से साधक सर्वश्रुतज्ञ विभ्रम रहित होते हए श्रतज्ञान के द्वारा मोक्ष का अधिकारी होता है। वर्णों का और मंत्रों का ध्यान करने में समस्त पदों का स्वामी 'अहँ' होता है। अर्ह का स्वरूप व्यक्त करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - अकार है जिसके आदि में, हकार है जिसके अन्त में और रेफ है मध्य में जिसके और वह बिन्द से सहित है ऐसा जो 'अर्ह' पद है. वही परमतत्त्व है। जो भी साधक ज्ञानी इस महापद को जानता है वह वास्तव में समीचीन तत्त्व को जानने वाला होता है। प्रथम तो ध्यानी 'अहँ' पद का ध्यान अलग-अलग अ, र्, ह्, म् रूप ध्यान करे, इसमें अभ्यस्त होने पर पिण्डरूप सम्मिलित पद का ध्यान करना चाहिये। इसमें भी जब पारंगत हो जावे तब 'ह' वर्ण जो कि चन्द्रमा की प्रभा से युक्त होता है, का ध्यान करना चाहिये। संयुक्त वर्ण का ध्यान करने में ध्वनि है परन्तु वर्ण मात्र का किया जाने वाला चिन्तन ध्वनि रहित हो जाता है। उस समय ध्यानी एक अलौकिक अनुभूति मात्र करता है। जो उच्चारण योग्य नहीं रहता उसे 'अनाहतनाद' कहा जाता है। यह रहस्यमूलक तत्त्व गुरु के प्रसाद अर्थात् प्रसन्नता से ही प्राप्त होता है। योगशास्त्रों में इसका क्रम प्रदर्शित करते हुए उल्लेख किया गया है कि - प्रथमावस्था में अ, ह, रेफ और बिन्दु का पृथक्-पृथक् चिन्तन करना चाहिये। तत्पश्चात् इनका संयोग करते हुए विचार करें और पिण्डरूप 'अहँ' होने पर इसे ध्यान का केन्द्र बिन्दु बनाना चाहिये। अन्त में 'ह' वर्ण का अनाहत नाद में लीन होने का अभ्यास करना चाहियो अहँ पद की महिमा का गान करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि - अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदध्महे॥' ज्ञाना. 453-457 ज्ञाना. गा. 476-477 अमृताशीति 36 समाधिभक्ति 11 266 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org