________________ 4. आज्ञा विचय - इसका वर्णन पहले कर आये हैं। 5. जीव विचय - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव अनादि निधन है, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सादि सनिधन है, असंख्यात प्रदेशी है, उपयोग लक्षण स्वरूप है, शरीर रूपी अचेतन उपकरण से सहित है और अपने द्वारा किये गये कर्म के फल को भोगता है इत्यादि प्रकार से जीव का जो चिन्तन किया जाता है वह जीव विचय ध्यान कहलाता है।' 6. भव विचय - चारों गतियों में परिभ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय प्राप्त होगी वह भी अत्यन्त दु:खरूप है। इस प्रकार का चिन्तन करना भव विचय ध्यान कहा गया है।' 7. विपाक विचय - इसका वर्णन भी पहले कर आया हूँ। 8. विराग विचय - यह शरीर स्वभाव से अपवित्र है और भोग किंपाक फल के समान तदात्व मनोहर हैं। अतः उनसे विरक्त बुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि प्रकार से चिन्तन करना विराग विचय नामक ध्यान है।' 9. संस्थान विचय - इसका भी वर्णन पहले हो चुका है। हेतु विचय - तर्क का अनुसरण पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय कहते हैं, इस प्रकार का चिन्तन करना हेतु विचय कहलाता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने धर्म्यध्यान के दो भेदों को विशेष रूप से व्याख्यायित किया है - एक आलम्बन रहित (निरालम्ब) धर्म्यध्यान और दूसरा आलम्बन सहित (सावलम्बन) धर्म्यध्यान।' निरालम्ब ध्यान - जो गृहस्थ अवस्था को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करके मुनि बन जाता है और वह जो बिना किसी के आलम्बन के ध्यान करता है उसको ही निरालम्ब ध्यान ह. पु. 56/42-43 वही 56/47 वही 56/46 भा. सं. गा. 374 277 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org