________________ नष्ट करने वाला, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य का धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध ऐसा जो आत्मा है वह अरिहन्त है उसका ध्यान करना चाहिये।' यहाँ शुद्ध से तात्पर्य 18 दोषों से रहित होना है। अरिहन्त के 46 मूलगुण होते हैं - 34 अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य और अनन्त चतुष्टय। सिद्ध परमेष्ठी - सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप को प्रकटित करते हुए आचार्य कहते हैं कि णट्ठट्ठ कम्मबंधो अट्ठगुणट्ठो य लोयसिहरत्थो। सुद्धो णिच्चो सुहमो झायव्वो सिद्धपरमेट्ठी॥ अर्थात् जिनके आठों कर्म सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, जो सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सुशोभित हैं, लोक के शिखर पर विराजमान हैं, जिनका आत्मा अत्यन्त शुद्ध है, नित्य है और सूक्ष्म है ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है। यहाँ आठ गुण इस प्रकार हैं - क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक वीर्य, अव्याबाधत्व, अवगाहनत्व, सक्ष्मत्व, अगरुलघुत्व। ये आठों गण आठों कर्मों के नाश से प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी भी लिखते हैं - नष्ट हो गया है अष्टकर्मरूप देह जिसके, लोकाकाश तथा अलोकाकाश को जानने, देखने वाला, पुरुष के आकार को धारण करने वाला और लोक के अग्रभाग पर विराजमान ऐसा जो आत्मा है वह सिद्ध परमेष्ठी है। इनका ध्यान करना चाहिये।' आचार्य परमेष्ठी - आचार्य परमेष्ठी के स्वरूप को वर्णित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - छत्तीस गुणसमग्गो णिच्चं आयरइ पंच आयारो। सिस्साणुग्गह कुसलो भणिओ सो सूरिपरमेट्ठी।' बृ. द्र. सं. गा. 50 भा. सं. गा. 376 बृ. द्र. सं. गा. 51 भा. सं. गा. 377 279 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org