________________ अर्थात् जो छत्तीस गुणों से सुशोभित हों, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, वीर्याचार और तपाचार इन पाँचों आचारों का पालन नित्य करते हैं तथा जो शिष्यों का अनुग्रह करने में अत्यन्त कुशल होते हैं उनको आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। आचार्य परमेष्ठी के 36 मूलगुण होते हैं जो इस प्रकार हैं - बारह तप, दश धर्म, पाँच आचार, छह आवश्यक, तीन गुप्ति। इन 36 मूलगुणों का स्वरूप सभी जगह प्राप्त है, परन्तु इस भावसंग्रह के टीकाकार पं. लालाराम शास्त्री ने कुछ भिन्न प्रकार के 36 मूलगुणों का उल्लेख किया है। ये 36 मूलगुण कहाँ से उद्धत किये गये हैं इसका उल्लेख पं. जी ने नहीं किया है। वे 36 मूलगुण इस प्रकार हैं1. पंचाचार गुण - जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पंचाचारों को स्वयं पालन करें और अन्य मुनियों (शिष्यों) से पालन करावें। आधारवत्त्व गुण - जो ग्यारह अंग नौ पूर्व अथवा दस पूर्व अथवा चौदह पूर्व श्रुतज्ञान को जानने वाले या धारण करने वाले हों। व्यवहारित्व गुण - सभी के स्वरूप को यहाँ संलग्न किया जा रहा है। आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी ने भी इसी प्रकार आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप प्ररूपित किया है - पाँच आचारों में जो स्वयं तत्पर रहते हैं और अपने शिष्यों को भी उनमें संलग्न करते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये।' प्रकारकत्व गुण - समाधि मरण धारण करने वाले क्षपक साधु के लिये परिवार का काम करना उनकी परिचर्या करना प्रकारकतागुण है। 5. आपायापायोपदेशकत्व गुण - आलोचना करने वाले मुनियों के चित्त में यदि कुछ कुटिलता भी हो तो उनके गुण दोष दोनों को प्रकट कर दोषों को स्पष्ट कर लेना। उत्पीलक गुण - जिन मुनियों के हृदय में कुछ कुटिलता हो और उन्होंने अपने अतिचारों को अपने मन में छिपा रखा हो उन अतिचों को भी अपनी कुशलता से बाहर प्रकट करा लेना। बृ. द्र. सं. गा. 52 280 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org