________________ किया जाता है, उस ध्यान को परगत रूपस्थ ध्यान कहते हैं। पञ्च परमेष्ठी का आत्मा अत्यन्त शुद्ध है परन्तु वह अपने आत्मतत्त्व से सर्वथा भिन्न है, इसीलिये आचार्य ने इनको परगत रूपस्थ ध्यान कहा है। स्वगत ध्यान का स्वरूप प्ररूपित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - सगयं तं रूवत्थं झाइज्जइ जत्थ अप्पणो अप्पा। णियदेहस्स बहित्थो फुरंत रवितेय संकासो॥' , अर्थात् जो अपना आत्मा है वह सूर्य के तेज के समान अत्यन्त दैदीप्यमान है, शुद्ध है, निर्मल है, ऐसा अपना आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा अपने शरीर के बाहर ध्यान किया जाता है, उसको स्वगत रूपस्थ ध्यान कहते हैं। / यहाँ यह विशेष है कि पञ्च परमेष्ठी भले ही हमारे बहुत उपकारी हैं परन्तु निज आत्मतत्त्व से तो पृथक् ही हैं, इसलिये आचार्य ने पञ्च परमेष्ठी को परगत रूपस्थ ध्यान के रूप में वर्णित किया है। क्योंकि हमको निज आत्मतत्त्व ही सर्वथा उपादेय है। अतः उसको आचार्य ने स्वगत रूपस्थ ध्यान की कोटि में स्थापित किया है। पञ्चपरमेष्ठी आदि तो मार्ग के सहयोगी हैं, मुक्तिधाम में तो हमको ही आगे बढ़ना होगा। आचार्य शुभचन्द्र ने रूपस्थ ध्यान का वर्णन 575 से 621 तक की गाथाओं में विस्तृत रूप से ज्ञानार्णव ग्रन्थ में व्याख्या की है। 4. रूपातीत ध्यान - वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से सर्वथा रहित ज्ञान-दर्शन स्वरूप, इस प्रकार जो ध्यान किया जाता है वह ध्यान रूपातीत ध्यान कहा जाता है। अर्थात् सामान्य से सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। यहाँ एक विशेष बात यह है कि रूपातीत ध्यान का स्वरूप आचार्य देवसेन स्वामी ने कुछ अलग प्रकार से प्रस्तुत किया है, जो अन्य आचार्यों से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होता है। आचार्य लिखते हैं कि - जो न तो शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा का चिन्तन करता है और न ही शरीर के बाहर शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं। न स्वगत भा. सं. गा. 624 भा. स. गा. 625 वसु. श्रा. गा. 476 275 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org