________________ र आग्नेयी धारणा - इस आग्नेयी धारणा में साधक अपने नाभिमण्डल में सोलह चे-ऊँचे दलों वाले मनोहर कमल का ध्यान किया जाता है। तदुपरान्त उस कमल की किर्णिका में महामंत्र को चिन्तन करते हुए उस कमल के सोलह दलों के ऊपर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः' इन सोलह अक्षरों को संस्थापित करना चाहिये। उस महामंत्र का स्वरूप बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - रेफ से आवृत्त, कला तथा बिन्दु से चिह्नित और शून्य कहिये हकार, ऐसा अक्षर दैदीप्यमान होते हुए चन्द्रमा की प्रभा कोटि से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामंत्र है, वह 'अर्हम्' है, उसे कमल की कर्णिका में स्थापित करके चिन्तन करे। उसके बाद उस महामंत्र के रेफ से धीरे-धीरे निकलती हुई धूम की शिखा का चिन्तन करे. फिर उसमें से क्रम के अनुसार से प्रवाह रूप निकलते हए स्फलिंगों की पंक्ति का चिन्तन करें और उसमें से निकलती/प्रस्फुटित होती हुई ज्वाला की लपटों का चिन्तन करे। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ती हुई ज्वाला समूह से अपने हृदय में स्थित कमल को निरन्तर जलता हुआ चिन्तन करें। हृदय में स्थित कमल के स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ दल वाला है, उन आठों दलों पर आठ कर्म स्थित हों, ऐसे कमल को नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित करें। महामंत्र के ध्यान से उठी हुई प्रबल अग्नि निरन्तर दहती है, इस प्रकार चिन्तन करे, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह ही चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है। उस हृदय कमल के दग्ध हो जाने पर शरीर के बाहरी त्रिकोण स्थित अग्नि का चन्तिन करे, सो ज्वाला के समूहों से जलते हुए बडवानल के समक्ष ध्यान करे। अग्नि बीजाक्षर 'र' से व्याप्त और अन्त में स्वस्तिक के चिह्न से चिह्नित हो। ऊपरी वायुमण्डल से उत्पन्न धूम रहित स्वर्ण के जैसी प्रभा वाला चिन्तन करे। इस प्रकार यह दग्धायमान प्रसरित होती हुई लपटों के समूह से दैदीप्यमान बाहर का अग्निमण्डल अंतरंग की मंत्राग्नि को दग्ध करता है। उसके बाद वह अग्निमण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्मीभूत करके जलाने योग्य पदार्थ का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाता है।' इसको आचार्य ने आग्नेयी धारणा कहा है। ज्ञाना. 37/9-19 262 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org