________________ नीता इन्हीं चारों भेदों को आचार्य देवसेन स्वामी ने धर्म्य ध्यान के अन्य भेदों में वीकार किया है। आचार्य लिखते हैं चित्तणिरोहे झाणं चहुविहभेयं च तं मुणेयव्वं। पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं चेव। अर्थात् चित्त का निरोध करना ध्यान कहलाता है। यह चार प्रकार का कहा गया - - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। और विशेष बात यह है कि इन चारों धर्म्य ध्यानों को सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि ही प्राप्त होते हैं ऐसा वर्णन किया गया है। अतः प्रसङ्गानुसार इन चारों धर्म्यध्यान के भेदों के स्वरूप को ही प्रकाशित करना अपेक्षित है। पण्डस्थ ध्यान - पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर होता है। उस शरीर के मध्य में स्थित नेज आत्मतत्त्व का इस प्रकार से चिन्तन करना कि वह अपना आत्मा अत्यन्त शुद्ध है, उसमें से श्वेत धवल किरणें प्रस्फुटित हो रही है और वह अतिशय रूप से दैदीप्यमान हो रहा है, ऐसे अपने आत्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। वह अपना शुद्ध आत्मा अपने शरीर में यद्यपि विद्यमान रहता है तथापि उसका शरीर से किसी भी प्रकार का कोई भी सम्बन्ध नहीं होता है। वह अपना आत्मा बिल्कुल स्वच्छ है। जिस प्रकार आसमान में सूर्य दैदीप्यमान होता है उसी प्रकार आत्मा के प्रदेशों का समूह पुरुषाकार है और वह अपने शरीर में असीमित गुण भरे हुए है। ऐसे शरीरस्थ आत्मतत्त्व का चिन्तन किया जाता है वह पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है।' आचार्य शुभचन्द्र ने पिण्डस्थ ध्यान के पाँच भेद किये हैं पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसना वाथ वारुणी। तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयस्तां यथाक्रमम्।' ज्ञाना. 37/1, बृ. द्र. सं. टी 48 भा. स. गा. 619 वही गा. 620-622, वसु. श्रा. गा. 459 ज्ञाना.37/3 260 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org