________________ है। अतः उनके द्वारा कथित तत्त्व को उनकी आज्ञारूप ग्रहण करके 'यही मेरे हितकारी जवान हैं' ऐसा चिन्तन करता है उसको आज्ञा विचय धर्म्यध्यान कहते हैं। यह ध्यान 4-7 गुणस्थानों में होता है। , अपाय विचय धर्म्य ध्यान - 'अपाय' इस शब्द से तात्पर्य है नाश। अशुभ कर्मों का नाश और शुभ कर्मों का आस्रव किस उपाय से सम्भव है, इस प्रकार का जो चिन्तन किया जाता है उसे अपाय विचय धर्म्य ध्यान कहा जाता है।' कर्म के नाश करने का प्रमुख उपाय सर्वज्ञ देव ने अप्रमत्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय ही है। कर्मों के आस्रव का निरोध करने के लिये इनका चिन्तन करना ही अपाय विचय धर्म्य ध्यान है। जब तक जीव का पर पदार्थों के साथ सम्बन्ध है तब तक जीव इन पदार्थों को अपना मानता है अथवा समझता है तब तक अपने आत्मस्वरूप में स्थित वह सपने में भी नहीं हो सकता है। अतः इस ध्यान का आधार करके पर पदार्थों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा अनुभूत करके मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर अपने आत्मस्वरूप को अङ्गीकार करके कर्मों के क्षय का उपाय प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार कर्मों के दोषों की हीनता की प्रवृत्ति में संलग्न होकर इस ध्यान को प्राप्त किया जा सकता है। यह ध्यान भी 4-7 गुणस्थानों तक होता है। 3. विपाक विचय धर्म्य ध्यान - प्राणियों के द्वारा स्वयं उपार्जित किये गये कर्मों के फल की उदय रूप प्राप्ति को विपाक कहा जाता है। कर्मों का उदय शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। इन कर्मों के फलों का चिन्तन करना विपाक विचय धर्म्य ध्यान कहलाता है। ये सारे संसारी जीव अपने-अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल पुण्य और पाप रूप सुख और दु:ख मानकर भोगते हैं। इन दु:खी जीवों का दु:ख किस उपाय/साधन से दूर हो, ये इस दु:ख से निवृत्त होकर किस प्रकार श्रेष्ठ मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हों, इस प्रकार का चिन्तन करना विपाक विचय नामक तृतीय धर्म्यध्यान कहा जाता है।' यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - इन आठों कर्मों के फल का उदय कैसे होता भा. सं. गा. 368 ज्ञाना. 34/14-15 ज्ञाना. 35/1 भा. सं. गा. 369 258 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org