________________ इन चारों में से प्रारम्भ के दो ध्यान हेय हैं. क्योंकि ये खोटे ध्यान हैं और संसार की संतति में वृद्धि करने वाले हैं एवं बाद के दो ध्यान संसार का छेद करने में समर्थ होने से मनियों के लिये भी उपादेय भत हैं।' आचार्य शुभचन्द्र ने पृथक् रूप से विशेष वर्णन करते हुए कहा है कि कुछ संक्षेप रुचि वाले शिष्यों ने ध्यान को तीन प्रकार का स्वीकार किया है, क्योंकि उनका मानना है कि जीव का आशय तीन प्रकार से होता है। उन तीनों आशयों में से सर्वप्रथम पुण्य रूप शुभ आशय है, द्वितीय इसके विपरीत पाप रूप अशुभ आशय है और तृतीय इन दोनों की कल्पना भेद से रहित शुद्ध उपयोग की अवस्था वाला आशय होता है। इस प्रकार जीव की तीन अवस्थाओं के अनुरूप ये ध्यान के तीन भेद किये गये हैं। और आगे अपने ही ग्रन्थ में दूसरे प्रकार से भी भेद प्रकट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि जो पर्व में वर्णित किया गया ध्यान है वह दो प्रकार है। जीवों के इष्ट और अनिष्ट रूप फलप्राप्ति के कारण स्वरूप ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त हैं।' अर्द्धमागधी आगम साहित्य में ध्यान के चार भेदों को स्वीकार किया गया है। वे हैं - आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ध्यान। इनमें प्रमुख रूप से ठाणांग सुत्त में. चौथे अध्ययन में चौथे स्थान में पहले उद्देश के 247 वें सूत्र में लिखा है कि - ‘चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा - अढे झाणे, रोद्देझाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे'। इसी तरह और भी आगमों में ध्यान के चार भेद ही वर्णित हैं।' आचार्य देवसेन स्वामी ने अन्य आचार्यों की तरह चार ध्यान के भेद तो स्वीकार किये ही हैं, साथ में एक विशेष रूप से भी भेद प्रदर्शित किया है जो अन्य किसी भी आचार्य ने नहीं किया। ये आचार्य देवसेन स्वामी की विशेषता ही है कि जो उन्होंने बिल्कुल अलग तरह से भेद प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि - एक भद्र ध्यान भी है। यह भद्र ध्यान आर्त-रौद्र और धर्म्य ध्यान के मध्य की अवस्था है। आचार्य कहते हैं कि जो भी श्रावक सम्यग्दर्शन से सहित अपनी इच्छाओं से भोग करता है और धर्म्यध्यान की आ. पु. 21/27-29, ह. पु. 56/29, ज्ञा. 25/20 ज्ञानार्णव 3/27-28 वही 25/17 समवायांग सुत्ते - चउट्ठाणे-1, आवश्यक नियुक्ति 1463, औपपतिकसूत्र 30 248 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org