________________ सामान्य रूप से आचार्यों ने आर्तध्यान के चार भेद बतलाये हैं - अनिष्ट संयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजन्य और निदान। ना अनिष्ट संयोगज - किसी अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसके वियोग होने का अथवा वह किस प्रकार दूर हो जाये, इसका बार-बार चिन्तन करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहलाता है। इसके स्वरूप को और अधिक विस्तार पूर्वक वर्णन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि - इस संसार में अपना, अपने सम्बन्धी, धन और शरीरादि का नाश करने वाले अग्नि, जल, विष, शस्त्र, सर्प, सिंहादि, क्रूर जन्तु, जलचर जीव, बिल बनाकर रहने वाले जीव, दुष्ट मनुष्य और राजा एवं अपने शत्रुओं आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग होने से जो उनके संयोग होने और उनका परिहार करने के लिये जो बार-बार चिन्तन होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्त ध्यान कहलाता है। चर पदार्थ, अचर पदार्थ और चराचर पदार्थों के संयोग से यह आर्तध्यान होता है। इन पदार्थों के विषय में सनने, देखने, स्मरण करने से अथवा अपने अधिक समीप समागत होने से आगामी समय में उनका वियोग किस प्रकार हो? ऐसा जो बार-बार चिन्तन करना है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहलाता है। यह ध्यान पाप बन्ध का कारण है। (ii) इष्ट वियोगज - जो पदार्थ बहुत अच्छा लगता है उसके वियोग हो जाने पर उसकी पुनः प्राप्ति किस हेतु से हो जावे, इस विषय में निरन्तर बार-बार चिन्तवन करना इष्टवियोगज आर्तध्यान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ पदार्थ यथा - राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य और अन्य भोगों की सामग्री आदि के नाश हो जाने पर अथवा वियोग हो जाने पर और जो इन्द्रियों के विषय मन को प्रिय लगते हैं उनका वियोग हो जाने पर जो त्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक और मोह के कारण से खिन्न भाव उत्पन्न होता है अथवा उनका पुनः संयोग किस कारण से होवे, ऐसा बार-बार चिन्तवन करना इष्टवियोगज आर्तध्यान कहा जाता है। यह ध्यान भी पाप बन्ध का हेतु है। (iii) वेदनाजनित आर्तध्यान - किसी रोग अथवा चोट या घाव के हो जाने पर जो तीव्र वेदना उत्पन्न होती है, उसको दूर करने के लिये जो बार-बार चिंतवन होता है वह ज्ञानार्णव 25/25-28, त. सू. 9/30, चा. सा. 18/5 त. सू. 9/31, भा. सं. 359 ज्ञाना. 25/29 250 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org