________________ होता है उसे रौद्रध्यान कहते हैं। इसमें कषाय और पापादि क्रियाओं को करते हुए उनमें अत्यन्त आनन्द मानता है, इसलिये इसे रौद्र ध्यान कहा जाता है। रौद्रध्यान के भेद - आचार्यों ने रौद्रध्यान के भी चार भेद किये हैं जो इस प्रकार हैं - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और विषयसंरक्षणानन्दी ध्यान।' (i) हिंसानन्दी रौद्र ध्यान - अपने और अन्य के द्वारा अन्य जीवों में मारे गये, पीड़ित किये गये और नाश किये गये जीवों में जो हर्ष अथवा आनन्द उत्पन्न होता है उसको हिंसानन्द सैद्रध्यान कहते हैं। जो स्वभाव से निर्दयी क्रोधकषाय से युक्त व्यभिचारी अथवा भगवान् के स्वरूप को नहीं मानता या फिर पापों के डर से दूर है वह रौद्र ध्यान का आधार होता है। ऐसा जीव अन्य जीवों के दु:खों में प्रसन्नता का अनुभव करता है। पूर्व में उत्पन्न हुए शत्रु से प्रतिशोध के विषय में चिन्तन करता है, दुःखियों को देखकर प्रसन्न होता है। दूसरों की सम्पदा-ऐश्वर्य को देखकर ईर्ष्या करता है, हिंसा के साधनों (तलवार, चाकू, बन्दूक आदि) का संग्रह करता रहता है, दुष्टों की सहायता करता है, ये सब हिंसानन्द रौद्रध्यानियों के चिह्न आचार्यों ने लक्षित किये हैं। (ii) मृषानन्द रौद्रध्यान - अपनी बुद्धि से काल्पनिक युक्तियों के द्वारा अन्य लोगों को ठगने के लिये असत्य वचनों के कथन के संकल्प का बार-बार चिन्तन करना मृषानन्द रौद्रध्यान कहलाता है। सामान्य रूप से अन्य किसी को छलने के लिये झूठ बोलना और उसमें आनन्द मानना ही मृषानन्द रौद्रध्यान कहलाता है। ऐसे जीव सांसारिक भोगों की इच्छा से कल्याण रूप धर्म मार्ग से विमुख होकर कुमार्ग में प्रवर्तित होते हैं। अपनी प्रभुता से निरपराधी जीवों को भी अपराधी घोषित करवाकर राजा अथवा कानून से दण्डित करवाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अपने वाक् चातुर्य से मूढ़ लोगों को संकट में डालकर अति प्रसन्न होते हैं। ऐसे जीवों के विचारों को आचार्यों ने मुषानन्द रौद्रध्यान कहा है। त. सू. 9/35, ज्ञाना. 26/3, भा. सं. 361-362 ज्ञाना. 26/4-15 वही 26/16-23 253 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org