________________ यह ध्यान कृष्ण, नील और कापोत इन तीनों लेश्याओं के बल से होता है। यह ध्यान नरकादि पर्यायों को उत्पन्न करने वाला है। यह ध्यान प्रथम गुणस्थान से लेकर पञ्चम गुणस्थान तक होता है। छठवें गुणस्थानवी जीवों के पाप का सर्वथा त्याग होने से यह ध्यान नहीं होता है। पञ्चम गुणस्थान तक जो कहा है वह वर्णन भी मिथ्यात्व की प्रधानता से कहा गया है, क्योंकि पञ्चम गुणस्थान में सम्यक्त्व की सामर्थ्य से अत्यधिक रौद्र परिणाम नहीं हो पाते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - जिनके मोहनीय कर्म का अत्यधिक तीव्रता को लिये हए उदय होता है। उन जीवों के रौद्रध्यान होती है, इस ध्यान का चिंतन करने से नरक पर्याय की प्राप्ति होती है।' आर्तध्यान और रौद्रध्यान के बाद सभी आचार्यों ने धर्म्य ध्यान को स्वीकार किया है, परन्तु आचार्य देवसेन स्वामी इस स्थिति में अपने कुछ पृथक् विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि - इन दोनों आर्तध्यान और रौद्रध्यानों से उस गृहस्थ श्रावक जो पाप रूप परिणामों का फल उत्पन्न होता है उस फल को यह सम्यग्दृष्टि श्रावक अपने शान्त परिणामों को धारण करने से और तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान होने से अपने भद्र ध्यान से नाश कर देता है। यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी का आशय यह है कि आर्त-रौद्र ध्यान और धर्म्यध्यान के बीच में भद्र ध्यान होता है। यहाँ पर आचार्य की विशेष दृष्टि यह है कि जो गृहस्थ श्रावक अभी आर्त-रौद्र ध्यान में रमा हुआ है उसके थोड़े से ही शान्त या उपशम परिणामों से धर्म्यध्यान संभव नहीं है। इसलिये उन्होंने इनके मध्य में एक भद्रध्यान स्वीकार किया है। आचार्य भद्रध्यान का स्वरूप प्ररूपित करते हुए कहते हैं कि यह जीव पञ्चेन्द्रिय विषयों के भोगों को छोड़कर धर्म का चिन्तन करता है और धर्म का चिन्तन करता हुआ भी स्वेच्छानुसार विषय भोगों को भोगता है उसे भद्रध्यान कहा जाता है। यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी का तात्पर्य यह है कि - यह श्रावक कभी विषयों में डूबा हुआ धर्म के विषय में विचार करता है और धर्म सम्बन्धी कार्यों में विषयभोगों का विचार करता है। अत: उसका चित्त स्थिरता को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसमें भागों को भा. सं. 363 भा. सं. गा. 364 वही गा. 365 255 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org