________________ एवं आत्मकल्याण के लिये जो चिन्तन होता है वह धर्म्य ध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त ध्यान कहे गये हैं। आचार्य उमास्वामी महाराज ने पहले तो सामान्य रूप से ध्यान के चार भेद करते हुए कहा है कि - ध्यान के चार भेद है - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान। इन चारों का वर्णन सामान्य रूप से कथन करने के बाद उसके ही आगे तुरन्त एक सूत्र दिया है जो एक विशेष तथ्य को दर्शाता है। उन्होंने कहा है कि जो बाद के दो ध्यान हैं वे मोक्षप्राप्ति में कारण हैं अर्थात् इसका यह तात्पर्य हुआ कि जो बाद वाले दो ध्यान हैं वे शुभ अथवा प्रशस्त ध्यान हैं, क्योंकि ये मोक्षप्राप्ति में मुख्य हेतु हैं। इसी तरह जो मोक्ष के कारण नहीं हैं वे पारिशेष न्याय से संसार के कारण होने से प्रारम्भ के दो ध्यान अशुभ अथवा अप्रशस्त ध्यान हैं। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्य शिवार्य लिखते हैं कि - सद्गति की प्राप्ति में बाधा पहुँचाने वाले और अत्यधिक भय रूप निमित्त होने से महाभयंकर रौद्र ध्यान और आर्त ध्यान को छोड़कर वह समीचीन प्रज्ञा से सहित श्रेणी आरोहण करने के सम्मुख क्षपक धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान को अपने चित्त में लाकर ध्याता है।' इसी विषय का समर्थन करते हुए एवं सार्थक तर्क देते हुए आचार्य अकलंक देव कहते हैं कि - ये जो चार ध्यान हैं वे दो प्रकार के जानना चाहिये - प्रशस्तध्यान, अप्रशस्तध्यान। अप्रशस्त ध्यान पाप के आस्रव का कारण होने से एवं कर्मों के नाश की सामर्थ्य होने से प्रशस्त संज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि धर्म्य और शुक्ल ध्यान कर्मों के नाश में सहायक होते हैं। इन्हीं भेदों को प्ररूपित करते हुए आचार्य जिनसेन स्वामी लिखते हैं कि - ध्यान के दो भेद हैं - प्रशस्त एवं अप्रशस्त। इनमें भी दोनों के दो-दो भेद हैं। अप्रशस्त के दो भेद - आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान तथा प्रशस्त के दो भेद धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान। मूलाचार पञ्चाचाराधिकार 394 त. सू. 9/28, ज्ञा. सा. 10, त. अनु. 34, अन. ध. 7/103 वही 9/29 भगवती आराधना 1699 तत्त्वार्थवार्तिक 9/28/4 247 For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International