________________ नय निश्चयरूप से उत्पाद और व्यय से मिश्रित सत्ता को ग्रहणकर द्रव्य को एक ही समय में उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य तीनों रूप वाला कहता है अथवा जानता है वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।' इस नय का स्वरूप बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी का अभिप्राय यह है कि शद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय मात्र ध्रौव्य है, क्योंकि उत्पाद-व्यय पर्यायार्थिक नय के विषय हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी है।' इसीलिये यहाँ पर अशुद्ध को ग्रहण करने वाला होने से द्रव्यार्थिक नय भी अशुद्ध कहा गया है। अब छठवाँ भेद प्रदर्शित करते हैं जो नय द्रव्य में गुण-गुणी आदि का भेद करके भी उनका परस्पर में सम्बन्ध करता है तो भेद कल्पना सहित होने से वह नय भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। इसका उदाहरण दिया है जैसे आत्मा के ज्ञान दर्शनादि गुण। यहाँ विशेषता बताते हुए आचार्य ने लिखा है कि आत्मा एक अखण्ड द्रव्य है उसमें ज्ञान-दर्शन आदि गुण नहीं हैं, ऐसा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है। इसको ही आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भी कहा है-आत्मा में न ज्ञान है, न चारित्र है, न दर्शन है, वह तो ज्ञायक शुद्ध है। आत्मा में ज्ञान-दर्शन आदि गुणों की कल्पना करना तो अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय सातवें भेद का कथन करते हुए लिखते हैं कि - समस्त स्वभावों का 'द्रव्य अन्वय रूप से हैं'। इस प्रकार जो नय द्रव्य की स्थापना करता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। इसका दृष्टान्त दिया है गुणपर्यायस्वभावी द्रव्या नयचक्र 22 सद्दव्यलक्षणम्। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। त. सू. 5/29-30 भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा आत्मनो ज्ञानदर्शनादयो गुणाः। आलापपद्धति सू. 52 णवि णाणं ण चरित्तं ण देसणं जाणगो सुद्धो। स. सा. 7 अन्वय द्रव्यार्थिको यथा गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम्। आ. प. 53 81 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org