________________ होने से स्त्रीविषय बाधा नहीं है, वैसे ही भगवान में असाता वेदनीय का उदय होने पर भी सम्पूर्ण मोह का नाश होने से क्षुधा बाधा नहीं है। अब यहाँ कोई पुनः शङ्का करता है कि मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यन्त नेह गणस्थानों वाले जीवं आहारक होते हैं, ऐसा आगम में आहारक मार्गणा में कहा है इसलिये केवलियों के आहार होता है। तो आचार्य कहते हैं कि - आहार 6 प्रकार के होते हैं-नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिकाहार। इनमें से नोकर्माहार की अपेक्षा केवली के आहारकपना जानना चाहिये, न कि कवलाहार की अपेक्षा। कवलाहार के बिना भी कुछ कम एक पूर्व कोटि तक शरीर की स्थिति के कारणभूत प्रतिक्षण पुद्गलों का आस्रव होता है, क्योंकि उनका शरीर परमौदारिक है और लाभान्तराय कर्म का सम्पूर्ण नाश हो चुका है इसलिये केवलियों के नोकर्माहार की अपेक्षा ही आहारकपना है। यहाँ कोई शंका करता है कि - नोकर्माहार की अपेक्षा से आहारकपना और अनाहारकपना यह आपकी कल्पनामात्र है, तब इसका समाधान करते हुए आचार्य जयसेन स्वामी लिखते हैं कि - तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में 'एक द्वौ त्रीन्वानाहारकः' इस सूत्र में कहा गया है कि यह जीव जब एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जाता है तब वह एक समय, दो समय और तीन समय तक अनाहारक रहता है। नोकर्माहार का लक्षण बताते हुए कहा है तीनों शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल पिण्ड का ग्रहण करना नोकर्माहार कहा जाता है। ऐसा आगम में बताया गया है। यहाँ पुनः कोई शंका करता है कि - बिना आहार के कोई भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता वर्तमान मनुष्यवत्। इस दोष का परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं - प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज यद्यपि आहार ग्रहण करते हैं तथापि वह ज्ञान, संयम, ध्यान की सिद्धि के लिये करते हैं न कि शरीर की पुष्टि के लिये। इसी तरह देवगति के देवता भी कई-कई दिनों तक भोजन नहीं करते हैं और फिर भी उनकी कई दिनों तक स्थिति देखी जाती है। अतः परमौदारिक शरीर होने से केवली के भक्ति का अभाव होता है। भा. स. गा. 110 प्र. सा. गा. 20 टीका वही 177 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org